आज

वह वहीं बैठा हुआ है। अंदर। कुर्सी पर। घड़ी की तरफ़ देख रहा है। वक़्त कम है। बारी-बारी से सब आ जा रहे हैं। उनमें अर्दली भी होंगे। किसी वकील के मुंशी भी होंगे। कई मामले में वही वकील की तरह सबसे पेश आने लगते हैं। जो कम रह जाते हैं, वह कुछ कहा नहीं करते। सिर्फ़ उन मामलों की पड़ी हुई फाइलों को देखा करते हैं। उनके वजन से सब दब गया है। भविष्य के सभी पन्नों को उन्होंने उड़ने से रोके रखा है। वह दृश्य, जिसमें एक हाथ से दूसरे हाथ तक जाती हुई एक फ़ाइल से दूसरी फ़ाइल तक का सफ़र उसकी आँखों में स्थिर हो गया है। वह बढ़ ही नहीं रहा है। तारीख़ अगर आपकी तरफ़ से किसी के अनुपस्थित होने से पड़ जाये, तब उसके वहाँ होने से क्या बदल जाएगा? वह आहिस्ते से उठने की कोशिश करता है। उसके पैरों में रक्त की बूँदें एक साथ अलग-अलग दिशाओं में भागती हुई लगती हैं। जो पैर दो घंटे से वहीं बैठे रहने से सुन्न हो चुके थे, अब झनझना जाते हैं। उसे अब ऐसी झंझनाहट अपने बीतते हुए दिनों में नहीं दिखती। वह बस अवाक् सा रह जाता है। उसे समझ नहीं आता, वह यहाँ क्या कर रहा है। उसे यहाँ होना भी चाहिए था? वह कई और जगहों से अनुपस्थित होकर यहाँ है। लेकिन यह अनुपस्थिति निरर्थक जान पड़ती है। कोई नहीं है, जिससे वह इन पलों को दिखा पाये। दिखाते हुए पूछ पाये, अब अगली पड़ती तारीख़ तक पहुँचने का सफ़र वह किस तरह करे? इतिहास या हो सके साहित्य का कोई जानकार अगर भविष्य में इन पंक्तियों तक पहुँचेगा, तब अतीत में रखी हुई इन पंक्तियों से वह क्या मानी लेगा, समझ नहीं आता। 

उसे कुछ समझ भी आएगा, ऐसी किसी आशा से वह भरना नहीं चाहता इसलिए अपनी डायरी में वह इस बारे में कोई बात नहीं लिख रहा। भविष्य में भी नहीं लिखेगा, ऐसा कोई फैसला अभी उसने नहीं लिया है। लगता है नशे में है। उसे अपने से दूसरे किसी व्यक्ति की मौजूदगी से कोई फर्क नहीं पड़ रहा। वह बस उन नहीं उड़ पा रहे अपने दिनों को ढेला मारकर किसी चिड़िया की तरह उड़ाने के ख़याल से भर ज़रूर गया है। पर अब लगता है,  वह ढेला भी नहीं उठाना चाहता। उसके मस्तिष्क की शिराओं में और कोई कल्पना अब जन्म नहीं ले पा रही। वह ख़ुद को दोहराते हुए सिर्फ़ दोहराए रहना चाहता है। कोई उसे छूकर कुछ न पूछे। छूते ही क्या पता वह भरभराकर बिखर गया, तब क्या होगा? होगा कुछ नहीं। वह बस बिखर जाएगा।

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