रेलगाड़ी

रेलगाड़ी कोई सुविधा नहीं दे रही. ऐसा नहीं है. वह अभी भी ज़मीन पर बिछी हुई पटरियों पर भागने की पूरी कोशिश करती है. वह कोशिश करती है, कैसे भी करके उन डिब्बों में बैठे लोगों को उनकी तय जगहों पर वक़्त के दायरे में पहुँचा दे. जो जा रहा है, वह भी उसी तरह साथ बिताये दिनों में डूबने लगता है. वह इसी तरह सबको लाती है. ले जाती है. उसका यही काम है. इसी को वह ठीक से करना चाहती है. अभी जब रेलगाड़ी प्लेटफ़ॉर्म से चली जायेगी, तब हम दोनों भाई थके हुए पैरों के साथ वापस घर लौटेंगे. यह सारी बातें मैंने परसों रात नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर सोलह पर खड़े-खड़े नहीं सोची. ट्रेन आने में अभी वक़्त था. जब किसी को छोड़ने स्टेशन पर जाओ, तब अन्दर से अजीब सी हरारत होने लगती है. खून एक दम ठंडा हो जाता है. मन बेचैन सा होने लगता है.

इस रेलगाड़ी की स्मृतियाँ बचपन से हमारे अन्दर घुल रही हैं. हम कभी गोंडा से नहीं आये. हमेशा बहराइच से बस पकड़कर चारबाग, लखनऊ के लिए निकलते और रात प्लेटफॉर्म पर चादर बिछाकर खाना खाते. लखनऊ मेल तबतक सामने लग जाती. थोड़ी देर बाद हम उठते और उसमें दिल्ली के लिए बैठ जाते. कोई सुबह उठता नहीं था. नींद अपने आप टूट जाती. गाड़ी कहीं हापुड़ के आसपास आउटर में खड़ी है. चाय वाले अखबार वालों से पहले डिब्बों में बिखर गए हैं. कोई कॉफ़ी पीना चाहता है, उसे इंतज़ार करना होगा. पता नहीं कब से उस एहसास को लिखना चाहता था, जब हम नींद से पूरे उठे नहीं होते. आँखें अभी नींद में ही हैं. साथी यात्री भी दिल्ली से पहले उठने के मूड में नहीं हैं. सब सो रहे हैं. मुँह कौन धोकर आये.

इन दिखाई देती छवियों में इतना बड़ा नहीं हूँ कि उठकर गाड़ी से नीचे उतर जाऊं. बस थोड़ा सिर उठाकर खिड़की के बाहर देखने की कोशिश करता. हर बार याद करने पर यही दृश्य दिखता. मुझे आज तक यह समझ नहीं आया, उन जून की किन्हीं सुबहों में खिड़की के बाहर कोहरा क्या कर रहा होता? इस कोहरे वाली सुबह में बगल की पटरियों पर दूसरी कोई गाड़ी सीटी बजाते हुए भागे जा रही है. हम वहीं खड़े हुए हैं. लगता है अभी थोड़ा और रुकेगी. तभी वह हलके से धक्के के बाद रेंगने लगती. इन बेतरतीब सी बातों में कई तफसरे रह गए हैं, इन्हें यहाँ कहना भी नहीं था. पर क्या करूँ?

हम बार-बार किसी न किसी बहाने अपने अतीत में लौटते हैं. जहाँ वह दिन नहीं होते. उन दिनों की यादें होती हैं. अक्सर इसी वजह से किसी को छोड़ने जाने का मन नहीं होता. स्टेशन पर किसी को छोड़ने जाना भी आगे चलकर एक कौशल में तब्दील हो जाएगा. उसका प्रशिक्षण दिया जाएगा. जो बिना भावुक हुए प्रशिक्षण पूरा करेंगे, उनके सरकार द्वारा प्रमाण पत्र डाक द्वारा भेजा जाएगा. लेकिन तब तक हम थोड़े और बूढ़े हो चुके होंगे और दिल थोड़ा और कमज़ोर होकर बिखरने को होगा. हमें जानने वाले कब अपनी ज़िन्दगी में से कुछ दिन हमारे साथ बिताने आये हैं, इसका अंदाजा हम उस वक़्त बिलकुल नहीं लगा पाते जब हम साथ होते हैं. यह वक़्त जब बीत जाता है और उस साथ के छूटने की बात आती है, तब हम थोड़े से अपने अन्दर जाकर कहीं खो जाते हैं. हम हर बार पीछे रह जाते हैं. ऐसा नहीं है.अक्सर हम किसी जगह से चले आने वालों में शामिल हैं.

तब जो कर सकता था, वही किया है. बस थोड़ा सा दूसरी तरफ़ जाने की कोशिश में वही रह गया, जो हमेशा छोड़ कर जाते हैं. आज बस उस जगह को पाने अन्दर रख कर सोच रहा हूँ, जब हम पीछे रह जाते हैं, तब हमारा मन कैसा होता रहता है? यह छूट जाना हमेशा दिल की खाली जगहों में भर जाता होगा. जब हम रोडवेज़ से चारबाग़ जाने वाली बस में बैठते होंगे, तब चंद्रभान, सत्यभान, संदीप, चाचा, फूफा, सब पीछे रह जाते हैं. बहुत से तो गाँव में ही रह गए हैं. वह सब यहाँ तक आ भी नहीं सकते. उनके आने से यह आना और भारी हो जाएगा. अच हुआ वह कभी नहीं आये. कुछ उनके मनों में वही सब दिन घूम जाते होंगे, जैसे मेरे मन में घूम रहे थे. दरगाह मेला, कुमार पिक्चर पैलेस, गाँव, चक्की, शाम की चाय. सुबह फरेंद खाने के लिए सायकिल पर घूमते रहना. सबकुछ. कुछ भी नहीं. हम सब एक-दूसरे के समकालीन बनकर एक दूसरे की यादों में रह रहे होते हैं. बस सोचते, कभी इस तरह छोड़कर जाने की बात ही न आती तो कितना अच्छा होता. पर नहीं. ऐसा कभी नहीं होता.  यह रेलगाड़ी हमें एक सौ तीस किलोमीटर बाद पकडनी होती पर उनका साथ, वहीं बस में बैठते ही छूट जाता.

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