मन मेरा

कल रात से मन थोड़ा परेशान है. शायद वक़्त के साथ न चल पाने की कोई टीस होगी. या कोई अधूरी बात से शुरू हुई उलझन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही होगी. जब पुराने दिनों में रहकर उनके बीत जाने की इच्छा से भर गया था, तब वहाँ से ऐसे दिनों की कल्पना नहीं की थी, जहाँ स्थितियाँ और बदतर होती जायेंगी. तब तो बस उन दिनों, शामों, रातों के कट जाने की जुगत में ही लगा रहा. उन दिनों में रह लेने का अनुभव नहीं है. उन्हें जैसे छुआ भी नहीं मैंने। बस दुःख कह भर लेने की जिद ने डायरी के पन्नों पर भर कर रख दिया. पुराने दिनों में लौट जाने का कभी मन नहीं करता. बस अगर कोई उन दिनों में से कुछ वापस लाने के लिए कहे, तब लिखने की इच्छा को अपने अन्दर भर लेना चाहता हूँ. यह कोई छोटी इच्छा भर नहीं है. एक दौर है. जहाँ कागज़ से लेकर यहाँ, इस स्क्रीन पर समानांतर लिखते हुए हम बीत रहे थे. शायद इसे बीत जाना ही कहेंगे. कोई बहुत सकारात्मक व्यक्ति इसे पढ़ते हुए इस प्रक्रिया को नए दौर की तरफ बढ़ जाना भी कह सकता है. हो सकता है, उसकी भाषा इससे भी अच्छी हो।

लेकिन यह किस तरह का समय है, जो समूह के विवेक की बात नहीं करता? उनसे उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं को नहीं पूछता. वह समूह को सिर्फ समूह की परिधि में समेट कर रख देना चाहता है. यह वक़्त नए तरह से पुरानी चीजों को दोबारा गढ़ने का है. वह सब अपनी ऊर्जा इसी में व्यय कर रहे हैं. किसी एक मिथक के समाने हमारे पास कोई कथानक नहीं है. हम अपनी असहमतियों को बिना दर्ज किये अपनी खोह में बैठे हुए हैं. शायद यह गलत लोगों से अपेक्षा है. वह कभी इस तरह सोच ही नहीं रहे थे. उन्हें सोचने के लिए सत्ता ने इस तरह अभ्यस्त किया है, कि सोचने के लिए भी उन्हें कई सारे दिमागों का संकुल चाहिए. पर सवाल है, सिर्फ इस इच्छा से भरे रहने से क्या होगा? क्या हमने इस तरह अपने यहाँ लोगों को खड़ा किया है?

अगर नहीं, तब यह किस तरह की बात है? कोई ऐसा इतिहासकार नहीं है, जो हम सबके मनों को पढ़कर वहाँ चलने वाली बातों से इस गुज़रते वक़्त की नब्ज़ टटोलकर अपनी किताब लिखेगा. या हो सकता है, यह मेरी ही कोई गलती होगी. क्यों अपने जैसों की तलाश में निकल गया. एक संभावना यह भी रह-रह दिमाग के पास चिड़िया की तरह उड़ जाती है कि हो सकता है, वह अपने अपने घरों में उन मोर्चे बना रहे हों, जिन्हें यहाँ तलाशता रहा. यह अपेक्षा भी तो गलत है, जिसमें सबसे लिखने की इच्छा करने लगा. पर नहीं. यह सिर्फ इस तरह ही नहीं है. इसे कई और तरहों से सोचा जा सकता है. सोचना चाहिए.

हो सकता है, वह जबतक इस भाव से ख़ुद को भरा हुआ पायें, हम कहीं दूर बैठे सुस्ता रहे हों. कुछ भी हो सकता है. मुझे पता है, यह निर्मम व्यवस्था हम सबको पेट के इर्दगिर्द घेर रही है. वह चाहते हैं, हमारे सारे सवाल नाभि के ऊपर से शुरू होकर नाभि के नीचे ख़त्म हो जाएँ. यह ख़ुद को बचा ले जाने का बर्बर संघर्ष है. जो यहाँ पहले थे, जो यहाँ पहले नहीं थे, सब इसी में फँसकर अपनी लड़ाईयां लड़ रहे हैं. हो सकता है, उन्हें यह मोर्चा ही न लगता हो. इसकी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इनकार इस बात से भी नहीं किया जा सकता, वह इस जगह आकर अपनी बात कहने के लिए बाध्य करने वाला, मैं होता कौन हूँ? यह बात कईयों के दिमाग में चींटी की तरह चलते-चलते, उनकी जीभ तक आ गयी होगी.

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