डायरी

मैं एक प्रस्ताव रखना चाहता हूँ. पता नहीं इसे कहाँ रख रहा हूँ. पर चाहता यही हूँ. इसे कहीं रख ही देना चाहिए. आसमान जैसे बरफ के टुकड़े भेजता है, मैं भी अपनी हर अनकही बात को कहीं भेजना चाहता हूँ. उसे कहीं ऐसी जगह पहुँचा पाऊं, जहाँ से वह सबको दिख जाया करे. तारों की तरह नहीं. या शायद उनकी तरह. वह कई प्रकाश वर्ष पहले अपनी जगह से चल पड़ते हैं. हमारी आँखों तक पहुँचने से बहुत पहले. वह झिलमिलाते हुए लगते हैं. असल में वह कणों के बीच से गुज़रती उनकी कोई किरण ही हुआ करती होगी. यह तारें भी उलझा ले जाते हैं.

बात चल रही थी, किसी पटल पर अपने इस प्रस्ताव के बारे में. जिसके बारे में मैंने अभी तक एक पंक्ति भी नहीं कही है. तो मियाँ सामिन अली, ज़रा ध्यान से सुनियेगा. दोबारा नहीं दोहराया जाएगा. हम जो इस समय में हैं, जबकि हमें लगता है, हम समय में हैं, हम कई ऐसी जगहों से गुज़रते हैं, जहाँ पहुँचने से काफ़ी पहले हम चले होते हैं. हम तारें नहीं हैं. फ़िर भी पहुँचते ज़रूर हैं. दिन भर लैपटॉप खोले किसी-किसी जगह हाज़िरी बजाते. किसी की तस्वीर को देखते. किसी बात पर वाह करते. कहीं से आई किसी की चिट्ठी पर अपने मन की कहते. यह सब कहीं दर्ज़ ज़रूर हो रहा होगा. पर इसके दर्ज़ होने की बात कहीं दर्ज़ नहीं हो रही.

चाहता हूँ, ऐसा कोई हो जो मुझ पर नज़र रखे, तो उसके पास कलम भी हो. उस कलम से वह हर लम्हा दर्ज़ करता जाये. मैंने कब, कहाँ, कैसे, कितनी देर रूककर अपनी जिंदगी के उन पलों को वहाँ जाया किया. वह रोज़ बताये. सबको बताये. मेरे हिस्से की खूफ़िया डायरी बनाने से अच्छा होगा, उसका सामने आ जाना. इससे कुछ हो न हो, मेरा काम आसान हो जायेगा. मैं रोज़ उसको छापकर अपनी डायरी में चिपका लिया करूँगा. फ़िर कभी मेज़ पर पड़ी डायरी को उठाकर खोलने को होऊँगा, तब ऐसा तो नहीं लगेगा, अरसा बीत गया, कुछ लिखा नहीं है. मुझे मेरे बदले लिखने वाला कलमनवीस मिल जाएगा. उसका भी काम हो जाएगा. मेरा तो खैर होता ही रहेगा.

इसके अलावे जहाँ मेरे दिन के बाकी पहर गुजरेंगे, उन्हें लिखने, न लिखने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी होगी. उसे अगर एक शब्द भी कहा, तो अपनी डायरी मैं ख़ुद ही लिख लिया करूँगा. और क्या करूँ, उसे इस कैद से आज़ाद कर दूंगा. इससे ज़्यादा और कर भी नहीं सकता. सियासत वाले नहीं करते, हम करेंगे. ज़रूर करेंगे.

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