दिल्ली, मौसम और धड़कन

कभी-कभी यही समझ नहीं आता, हम दिल्ली जैसे शहर में रह कैसे रहे हैं? कोई भी तो नहीं जो इन कमरों के बाहर दिख जाये. सब अपने गुरुर में कमर झुकाए जिए जा रहे हैं. यहाँ की हवाओं में ही बेगानापन इस कदर घुल गया लगता है, जैसे हम उसी के इर्दगिर्द हवा की तरह पोसते रहते हैं. मन नहीं होता, यहाँ रहा जाये. पर क्या करें, पढ़ लिख गए हैं तो सोचते हैं, इस पढ़ाई के बाद एक कमाने वाली नौकरी लग जाये. मतलब, आप जब तक कहीं मातहत नहीं होते, यहाँ लोग किसी क़ाबिल भी नहीं समझते. पैसा तभी मिलेगा, जब नौकरी मिलेगी. ज़िन्दगी जीने के लिए हवा ज़रूरी है या कहीं दफ़्तर में जूते-चप्पल घिसने की एवज में मिलने वाली एकमुश्त रकम? कभी समझ नहीं पाता. समझ न आना शायद हम सबकी चालाकी है. इससे चीज़ें छुपी रहती है. छुपी रहती हैं, इसलिए दिखाई नहीं देती. दिखाई देने लगेंगी, तब चुभने लगेंगी. इसलिए अच्छा है, उनका छिपा रहना.

जिन्होंने उसे देख लिए है, वह मेरी तरह इसे कहीं और न लिख दें, इसकी ज़िम्मेदारी आपके ऊपर है. इस मौसम में ऐसे ख़याल ही आते हैं, ऐसा नहीं है. पेड़ों से पत्ते झर रहे हैं. पीले पीले पीपल के पत्ते अभी नीचे नल के आस पास बिखरे पड़े थे. पकड़िया के पेड़ में हरे पत्ते आ गए हैं. आम का पेड़ इस बार आम की बौरों से लदा पड़ा है. रात हवा ख़ूब चलती है. आलोक ने बताया, केरल में तो बारिश भी होने लगी है. रात बत्ती कट जाती है. सब एकदम फ़िर सूना हो जाता है. कुछ नहीं दिखाई देता. बस एक मोबाइल होता है. वह भी चुप पड़ा रहता होगा.

मैं इन सबमें कहाँ हूँ? शायद यही लिखकर कहने की कोशिश कर रहा हूँ. नींद देर रात कहीं किसी बिरवे पर अरझी रहती है. रोज़ दूर से तारे की तरह तोड़ कर लाने को होता हूँ. इस काम में पलकें सबसे पहले थक जाती हैं. नींद से नहीं. दिन भर इस दुनिया में फैली रौशनी से. धूल से. अँधेरे से लड़ते हुए थक जाती हैं. किसी नए काम को करने का मन नहीं होता. पुराने से जी इतना उचट गया है, उसकी तरफ़ मुड़ कर जाने, बैठे, बतियाने की हिम्मत नहीं होती. होली इस लिए उदासी से माहौल में आता पर्व लगता है. हर साल इन्हीं दिनों में एक से ख्यालों से भर जाने को क्या कहेंगे? कैसे देखेंगे? नहीं पता. पर हर साल लगता है, यह जगह साल दर साल छूटती जा रही है.

यह छूटना सबसे पहले मन में घटित होता है. यह जगहें जैसे पहले थीं, उसके वैसे बचे न रहने की वजह से, यह सब मन में, किसी कहानी की छूट गयी पंक्तियों की तरह, अन्दर ही अन्दर ख़ुद को अपने आप को दोहराने लगती हैं. यह कोई विशेष काम नहीं है, पर इसका अन्दर घटना, अन्दर से तोड़ देता है. लथेर देता है. तब कुछ नहीं बचता.

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