किसी किस्से में

कभी-कभी तो लगता है, जैसे मैं किसी किस्से में हूँ और यह किस्सा किसी को सुना रहा हूँ. फर्क नहीं पड़ता जिसे सुनाया जा रहा है, वह यह किस्सा सुनने में कितना मशगुल है? फ़र्क पड़ता है, मेरे ऐसे हो जाने से. कहीं कोई ऐसा बेखयाल भी मेरे अन्दर है, जहाँ मैं असल में नहीं हूँ. ऐसा सोचना किसी सपने से कम भले न दिख रहा हो, पर यह कहीं और होना मेरे लिए ठीक नहीं है. इसकी परतों में कई ऐसे पेंच हैं, जो मेरी ज़िन्दगी के नाकाबिले बर्दाश्त पलों से भर जाने का एहसास इस कदर तारी हैं कि अब तो लगता है, किसी भी पल यह ख्वाब टूट जाएगा और मैं ख़ुद को कहीं दूर अपने बिस्तर पर आँख मलते हुए अलसाया हुआ सुबह के सूरज के अपनी खिड़की से बीत जाने को सोचकर भी वहीं पड़ा हुआ मिलूँगा.लेकिन ऐसा होता नहीं है. आज तक नहीं हुआ. मैं इस हिस्से के ख़त्म होने का कितनी शिद्दत से इंतज़ार कर रहा हूँ, बता नहीं सकता.

सोचता हूँ, ऐसा कब होता होगा? क्यों कोई इस तरह हो जाता होगा? इसकी एक वजह ऊपर है. पर वह काफी नहीं है. यह समझने के लिए किस तरह ख़ुद में डूबते हुए सब कहना पड़ता है, किसी को इसकी कोई टोह भी न लगने देना, किसी माहिर का काम है. मुझे ऐसा माहिर होना नहीं आता. तभी कह देता हूँ. 

यह किसी तरह भाग न पाने की मज़बूरी है. बार बार भी चाह कर वहीं होने का एहसास दर्द की तरह अन्दर टपकता रहता है जैसे खून की कोई किश्त अभी भी अपने अंदर कहीं उग आई हो. नाकामियाँ पैरों में उलझन की तरह उलझने लगी हैं. समझ में तब आता है, जब समझ में आने का कोई मतलब नहीं. समझ कर क्या करेंगे. मनोविज्ञान पढ़े होतो, तब इससे बचने की किसी तरकीब पर काम कर रहे होते. खैर बात पढ़े होने से ही शुरू होती है. काश अपना दिल न पढ़ पाते तो यह सब होता ही नहीं. कहाँ लिखने के झमेले में कोई पड़ना चाहता है. यह भी खाली तखत डाले उसपर ऊँघते उस्तादों का खेल है. हमें नहीं खेलना यह खेल. कोई दिन कहीं ऐसा तो हो, जब इस एहसास से बाहर निकल पाऊँ. उसे अपनी जेब में खोजता हूँ. पर मिलता नहीं है.

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