चले जाना

वह चले गए. ऐसे जैसे कभी यहाँ थे ही नहीं. किसी से कुछ नहीं बोले. ऐसा नहीं है, किसी से बोलने का मन नहीं हुआ होगा, पर क्या बोलते? जो वह कहते, हम उसे कर नहीं पाते. शायद इसलिए बिन बोले चले गए. चले जाना हमेशा के लिए चले जाना नहीं है. वह स्मृति की तरह किसी आम के पेड़ की बौर की तरह हर साल वापस आना है. पर याद के पेड़ों पर साल, साल भर जितने बड़े नहीं होते. वह हर रात लौट आते हैं. उनका हर पल लौट-लौट आना उनकी अनगिनत आवृत्तियों को बताता है. यह गणित के विशेषज्ञों की गणना से परे की बात है.

उनके कल रात चले जाने के बाद भी वह जगह अभी भी किसी के होने के निशान छोड़ रही होगी. कई दिनों तक हाथ में लगे रंगों की तरह छूटती रहेगी. वह भी अपने हिस्से की कई यादों को यहाँ बिखरा हुआ छोड़ गए होंगे. उन्होंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया होगा. वह यहाँ ख़ुद छूट गए होंगे. किसी कोने में अभी ख़ुद खड़े होंगे.

वह ब्रश जो वह नहीं ले गए. उन दो बोतलों पर उनमें से किस किस के निशान होंगे. उस दरवाज़े को आख़िरी बार छूकर कौन कौन गया होगा? स्पर्श की अपनी स्मृतियों में उस लोहे का दरवाज़ा जिस सीमा का निर्माण कर रहा था, उसे अतिक्रमित करते हुए वह चले गए. ‘चले गए’ कहना गलत शब्द है. फिर भी यही कह रहा हूँ. चले गए.

उनके जाने के बाद आज पहली सुबह थी. सबसे पहले जहाँ वह कपड़े डालते थे, वह जगह किसी और के खाते में चली गयी. आगे सब कुछ चला जाएगा. बस हुआ ऐसा, वह जगह कहीं नहीं गयी. जगह से वह चले गए.

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