परिवर्तनकामी शिक्षा का मिथक

समाज में एक वर्ग ऐसा भी होगा, जो कहता होगा, शिक्षा उत्पीड़न से मुक्ति देगी. वह शिक्षा को सुन्दर सपने की तरह देखते होंगे और मुक्ति की एकमात्र युक्ति इसे मानते होंगे. मैं यहाँ ठहर कर कुछ देर सोचना चाहता हूँ. उनका शिक्षा से क्या तात्पर्य है? क्या वह समाज के दमित, उत्पीड़ित, वंचित समुदायों के इस औपचारिक शिक्षा से गुज़र जाने की बात कर रहे हैं? वह उन्हें किन कौशलों से युक्त होता देखना चाहते हैं? क्या शिक्षा उनकी वर्तमान विषम परिस्थिति से पर्दा उठाने के लिए पर्याप्त है? हमने इस शिक्षा के ढांचे और शिक्षा से इतनी सारी अपेक्षाएं क्यों बांध रखी हैं, समझ नहीं आता.

पंद्रह दिन से जिस जगह पर हूँ, वहाँ शिक्षा की सरकारी योजनायें अपने लाव लश्कर के साथ उपस्थित हैं. गाँव में ही कक्षा आठवीं तक सरकारी विद्यालय है. मध्याहन भोजन की समुचित व्यवस्था ग्राम प्रधान की निगरानी में सुचारू रुप से चल रही है. वर्दी आती है, बंट जाती है. सत्र शुरू होने पर किताबें आती हैं, वह भी वितरित हो जाती हैं. पर जितने बच्चे उन कमरों में नहीं हैं, उससे ज्यादा वह उन गलियों, घरों में, बाहर अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं. उनकी पढने में रूचि उस स्तर पर नहीं हैं. उनसे इसका कारण पूछने पर वह उलटे मुझसे पूछ बैठते हैं.

तब उनके इस मूलभूत प्रश्न का मेरे पास कोई जवाब नहीं हैं कि 'वह पढ़ लिखकर क्या करेंगे?’ जो वह उसके बाद करेंगे, वह अभी से कर रहे हैं. चलिए थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं, अगर कोई शिक्षा को सर्वहारा में चेतना का माध्यम देख रहा था, तब तो यहाँ उसका यह विचार काम नहीं करेगा. ऐसी स्थिति में हमें क्या करना होगा. इस समुदाय का आकार भले छोटा है, पर यदि यह शिक्षा को भविष्य में मिलने वाली नौकरी के साथ जोड़कर नहीं देखता, तब वह किस तरह का समाज है? क्या उसने हमारी सामजिक संरचना के सबसे मार्मिक स्थल पर अनजाने ही चोट तो नहीं कर दी? जिस दौड़ में अधिसंख्यक लोग बेतहाशा दौड़े जा रहे हैं, उस रास्ते पर एक छोटा समूह चलने से भी मना कर रहा है. उसे यह तो नहीं पता चल गया, यह शिक्षा उन्हें अपने परिवेश से काट देगी और उन्हें किसी कृत्रिम समाज का सभ्य नागरिक बनाकर छोड़ेगी? इतना होने पर भी मेरे सवालों का जवाब मुझे मिलता नहीं लगता.

क्यों हमें लगता है, शिक्षा संघर्ष का औज़ार बनेगी और लोगों को संगठित करेगी? जबकि हम देख रहे हैं, यह समूचा शैक्षिक ढ़ांचा ही समाज से कटा हुआ है. चेतना शिक्षा लेकर आएगी, और उसके अन्दर हमारे समाज को बदल देने वाले सवाल उठेंगे. कितना अजीब है, ऐसा सोच पाना. मेरे पास इसका अपना उत्तर है, जहाँ हम सब शायद सामजिक असमानता को आर्थिक प्रगति से दूर करने के दिवास्वप्न में ख़ुद को व्यस्त कर लिया करते हैं.

क्या यहाँ हम गलती नहीं कर रहे हैं? सिद्धान्तकारों की तरह हम भी यह मानकर बैठे हैं. उनकी तरह हम भी शिक्षा को एक उपकरण की तरह देख रहे हैं, जहाँ उसका सम्बन्ध कुछ पेशों और उनसे जुड़े कौशलों से जुड़ता हुआ लगता है. जहाँ तक जो पढ़ जाएगा, उसे उस तरह के काम मिलने में सहूलियत होगी. शिक्षाशास्त्री इसमें समाजशास्त्रीय विश्लेषण से यह व्याख्या करते हुए पाए जायंगे, जहाँ वह विषयों को चुनने और उन्हें चुनने वालों के वर्गीय आधार को स्पष्ट देख रहे होंगे. किसके पास सांस्कृतिक पूंजी है और कौन किस तरह के विषयों के रुझानों से संपन्न है, यह लगभग पहले से तय है. इसमें विचलन आरक्षण आदि सरकारी प्रावधानों से देखने को मिलता है, जिसे सब नकारात्मक दृष्टि से देखने के अभ्यस्त हैं. इतना आगे आ जाने पर भी लगता है, सारी बहस वहीं की वहीं घूम रही है.

प्रश्न है, इस शिक्षा से आगे हम कब सोचना शुरू करेंगे? क्यों हमारी टेक सभी को शिक्षित करने से शुरू होती है? क्यों नहीं हम उन समानांतर, वैकल्पिक, अल्पज्ञ ज्ञान कोशों को सृजित और पोषित करने के लिए कुछ करना चाहते? दिक्कत शायद यह है कि शिक्षा की इस इकहरी व्यवस्था में हम उन सबको 'ज्ञान' कहना ही नहीं मानते. हमारी परिभाषा में जो इस खाँचे में नहीं समाएगा, वह हमारी दृष्टि में हमसे कमतर होगा. पर क्या हमने कभी विचार किया है, हम उन सबकी निगाह में क्या लगते होंगे, जो शिक्षा के पूरे विमर्श को नए सिरे से रचने में किसी भी तरह की रूचि नहीं रखते. उनकी नज़र में हम अपनी ही बनाये जाल में फँसती जा रही मकड़ी हैं, जिसे यह नहीं पता चल पा रहा इस मकड़ जाल से बाहर आने का कौन सा रास्ता उसने छोड़ा था?

{आज दिन सात मार्च दो हज़ार सत्रह. जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे', में 'सपनों के बरक्स' नाम से. थोड़े संशोधन के साथ. पीडीएफ में यहाँ पढ़ें और वर्ड में पढ़ने के लिए इधर चले आयें.}

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