जैसे कहानियाँ
इन पांच दिनों में मैंने कुछ ख़ास काम नहीं किया है. बस आस पास की आवाजों के वक़्त को अपने मन में दर्ज करता जा रहा हूँ. रात ग्यारह बजे इस चक्की के चलने की आवाज़ नहीं आती. घड़ी उस सन्नाटे को चीरती हुई कानों में घुस जाती है. कभी कोई खाली ट्रॉली खड़बड़ाते हुए गुज़र जाती है. कुत्ते हमेशा सतर्क रहते हैं. मेमनों की आवाज़ कभी-कभी सुन लेता हूँ. यहाँ गाय नहीं है. होगी तो सड़क से दूर कहीं किसी ने बांध रखी होगी.
ऐसी फ़िज़ूल लगती बातों से यहाँ का रोज़ाना बनता है. सब उसमें आना हिस्सा हर दिन देते रहते हैं. इन्हीं में अपना ज़माना देख चुके कोई बाबा होंगे, जो पार साल टांग टूट जाने और उसके बाद ठीक से इलाज नहीं होने पर अब ठीक से बैठ नहीं पाते होंगे. ऐसे ही एक दिन मिल गए. कहने लगे, 'खड़े-खड़े झाड़ा फिरित हय भईया. बइठ नाय पाइत हय.' उन्होंने मुझसे यह क्यों कहा, नहीं जानता. शायद यह कहकर उनका दुःख थोड़ा मुझ तक पहुँच पाया होगा. तभी मैं उसे और आगे आप तक कह पा रहा हूँ. हो सके, तो इसे और आगे तक पहुँचा देंवे. शायद उनकी पीड़ा कुछ कम हो जाए.
डंडा लिए हर रोज़ पांच मिनट में यही कोई दस-बारह कदम की औसत से ख़ुद को घसीट पाते हैं. इसमें लोई गति नहीं है. कहीं कोई घर्षण नहीं है. इसे चलना नहीं कहते. इसे घसीटना ही कहेंगे. इन दिनों बस ऐसी ही कई सारी कहानियों से घिर गया हूँ. इनका क्या करूँगा, पता नहीं. अगर कोई सुझाव हो, तो भी न बताएं. मैं कुछ कर नहीं पाउँगा.
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