सिकुड़ना

यह सच है ठण्ड सबको सिकोड़ देती है. हम उसके घटते बढ़ते अनुपात में दिन रात सिकुड़ते रहते हैं. कोई हमें कहता नहीं पर बचे रहने की यही तरकीब हमें आती है. हम सबको अपने सिकुड़ने का ब्यौरा लिखना चाहिए. एक सूची बनानी चाहिए. हम कब, कहाँ, किस मौके पर कितना सिकुड़ते हैं? तब शायद हम सिकुड़ने तक पहुँच पायें. और हम ठण्ड के अलावे कुछ अन्य कारणों को जान पायेंगे. यह काम अगर शुरू ही करना है तो हम ही शुरू कर सकते हैं. मैं यह कह सकता हूँ कि जब घर के आसपास उतनी जमीन बचाकर सब कुछ तोड़ दिया जाये, तब हम और सिकुड़ जाते हैं.

यह घर अगर पहली मंजिल पर हो और कोई कहे, जिस दरवाज़े हम अन्दर दाख़िल होते और जिस दरवाज़े से हम बाहर निकलते हैं, बिलकुल उसी हद से हम तोडना शुरू करेंगे, हम तब भी सिकुड़ते हैं. सिकुड़ने के अलावे ख़ुद को बचाने का कोई और विकल्प हमारे पास नहीं बचता. जिस दरवाज़े से निकलकर बचपन से आज तक हम अंदर बाहर होते रहे हैं, वही जगह अब टूटने वाली है. यह पुरानी स्मृतियों में किसी नहीं बनती याद की सेंध नहीं, उसकी छापेमारी है. हमने हम नहीं है तुम हमारे स्मृति कोश का हिस्सा बनो. फ़िर भी हम उसे टाल नहीं सकते.

मम्मी हमारे पैदा होने के पहले से उस छोटी छत को देखती आ रही हैं. वह इस टूटने की बात सुनकर एकदम सिकुड़ गयी हैं. जबसे पैरों के दर्द के कारण चलना मुश्किल हुआ है, तबसे उनके जिम्में जो एक काम बढ़ गया था, अब उस अनुपात की सघनता बढ़ने वाली है. न मालुम कितने महीने नयी छत पड़ने में लग जाएँ. फ़िर वह कभी दरवाज़ा इस तरफ़ खोलने भी दें या नहीं, यह भी कह नहीं सकते. इसलिए उन्होंने सबसे पहले सिकुड़ना शुरू कर दिया है. वह चाहती नहीं हैं, फ़िर भी सिकुड़ने लगी हैं. उनके सिकुड़ने का असर हम पर भी होगा. पर सबसे ज़यादा उन्हें इस क्रिया में संलग्न होना है इसलिए वह इस अभ्यास से बचना चाहती हैं. चिंता की रेखाएँ उनके आसपास साफ़ बनती हुई देखी जा सकती हैं. हम सब तो सुबह होते ही घर से निकल जायेंगे, तुम भी जब चाहे उस कमरे से कुछ देर के लिए बाहर आ जाओगी.पर वहाँ रह तो मम्मी ही जाएँगी. इसलिए यह सिकुड़ना दर्ज़ होना ज़रूरी है.

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