बीते हुए शहर में

कभी कोई सोचता होगा, कैसे एक शहर के बीच दूसरा शहर रह सकता है. इसे एक दूसरे में समाया हुआ भी कह सकते हैं. जैसे हवा हमारे आसपास बह रही होती है, वैसे ही कितने शहर हमारे साथ चलते रहते होंगे. पर हम इस तरह सोचने के आदी ही नहीं होते. सब हमारे सामने बिखरा पड़ा रहता है. फ़िर भी नहीं. यही बीते हुए शहर कहीं हमारे हमारे वर्तमान का अतीत है. इसी तरह उस दुपहरी हम एक मामूली से लोहे के दरवाज़े को पार करके उस शहर में दाख़िल हुए, जो अब सिर्फ़ चार चारदीवारी के भीतर बचा रह गया है. जिस शहर में हम आज रहते हैं, उसकी चारदीवारी इन आँखों से दिखती नहीं है. शायद दिख ही नहीं सकती.

जिस शहर में हम कुछ देर पहले दाख़िल हुए हैं, उसमें हमारे आज का शहर दाख़िल न हो जाये, इसलिए इसकी चारदीवारी एक सीमा रेखा की तरह वहाँ मौज़ूद है. चारदीवारें हमेशा से इस काम को ख़ूब मन लगाकर करती आ रही हैं. वह हमें इस आवाजाही को रोकने का सबसे कारगर हथियार लगती है. कहने को इस शहर में अब कोई नहीं रहता. कोई इन खण्डहरों में रहकर क्या करेगा? इस बचे हुए शहर की जिम्मेदारी एक सरकारी पहरेदार पर है, जो शाम को शायद ताला लगाकर किसी और मुलाजिम को रखवाली का काम सौपकर वापस अपने घर चला जाता होगा. उस ढलती हुई शाम को ढल गए शहर में देखते हुए, हम भी यहाँ थोड़ी देर के लिए थे. जितनी देर में थोड़ा-सा बीते हुए कल में दाख़िल होकर, वापस इस दुनिया में लौट आने में पीछे छूट जाने का डर न हो. बस उतनी ही देर.

कोई सुलतान कभी रहा होगा, जिसने उस समय उपलब्ध साधनों और उतनी ही सहजता से व्याप्त ज्ञान का उपयोग करते हुए इस शहर को बनवाया होगा. पर पत्थरों पर उभरने से पहले वह उसके मन में कहीं उग आया एक बाल ही रहा होगा. उसने पूरब में एक नदी को बहते हुए देखा होगा. उसके किनारे पानी पीते हुए वह इस ख़याल से पूरा भीग गया होगा. उस सादे पानी में उसने वहीँ रहने के सपने देखे होंगे. आज अगर वह होता, तब कोई उससे ज़रूर पूछता क्यों(?) मेरठ से खींच कर अशोक स्तम्भ को वह अपने शहर ले आया. सिर्फ़ लाया ही नहीं, उसने अपने ही जैसे किसी राजा की अमानत समझकर, उसे उतनी ही ऊँचाई पर फ़िर से खड़ा कर दिया. कि कहीं वह देखे, तो इसे देखकर वापस लौट आये. यह शायद एक सुलतान की दूसरे सुलतान से मिलने की एक तरकीब रही होगी.

हम वहीं घास पर बड़ी देर तक बैठे रहे. देखते रहे उस जगह को. वह हमें सोख रही थी या हम उसे. कहना मुश्किल है. इस जैसे शहर न जाने कब बनना बंद हो गए होंगे? हम भी कहाँ कोई सपने देखते हैं. हमारे सपनों में ऐसे शहर कभी नहीं आते. इन्हें बनाने के लिए अब सपनों की खाद भी काम न करे शायद. पर यहाँ आकर एक पल के लिए भी नहीं लगा कि हम एक बीते हुए शहर में ख़ुद को समेटे हुए बैठे हैं. अगर यह शहर ख़त्म हो चुका है, तब क्यों यहाँ चिड़िया आ रही है. क्यों यहाँ की दीवारें आज भी उतनी ही ऊँची हैं. अगर इतनी सदियों बाद भी हम यहाँ हैं, तब इसका एक ही मतलब है, शहर कभी नहीं मरते. वह बस एक समय बाद थम जाते हैं. रुक जाते हैं. उन्हें होता कुछ नहीं है.

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