दो दिन मोरनी

दो दिनों से हमारी छत पर एक मोरनी पीछे जंगल से आ जाती है. कल तो सुबह ग्यारह बजे आकर बैठ गयी और पूरी छत के न मालुम कितने चक्कर उसने लगाये होंगे. कभी कहीं बैठ जाती कभी कहीं. शाम अँधेरा हो गया होगा, जब मैं पानी भरकर ऊपर वापस आया, तब देखा तो वह जा चुकी थी. आज दोपहर फ़िर हम छत पर लौटे तो वह यहीं थी. उसे डर नहीं लग रहा. हम मोर नहीं हैं. हम उससे अलग दिखते हैं. फ़िर भी वह हमारे आसपास बनी रहती है. उसका मोर कहाँ है? पता नहीं. उसका मोर शायद वही होगा, जो कभी सुबह स्कूल की छत पर दिख जाता था. कभी-कभी वह अपने अधखुले पंखों से साथ मुंडेर पर घूमता रहता था. उसे कोई देखने वाला नहीं था. शायद वह किसी को दिखता भी नहीं होगा. हम ही सब चीज़ों को देखने लायक समझने लगते हैं. पर हम सब दो दिन से यही सोचे जा रहे हैं कि वह अगर यहाँ इस छत पर इतनी बेतकल्लुफ़ी से घूम रही है, तो उसे जंगल को ऐसा क्या हुआ होगा(?) जो वह अपने दिन के कई घंटे हमलोगों के साथ बिता रही है. उसका जंगल क्या जंगल से किसी और चीज़ में तब्दील हो रहा है? पता नहीं. हो सकता है, उसके व्यवहार में यह परिवर्तन हमसे मिलने के बाद आया हो. या कहीं उसने हमारी आँखों में देख लिया हो कि कोई उसे नुक्सान नहीं पहुँचायेगा. 

अगर वह ऐसे ही हमारी छत पर आती रही, तब हम उसे भी बिल्ली की तरह समझने लगेंगे. बिल्लियाँ यहाँ ख़ूब रही हैं. ठण्ड के मौसम में तो ख़ासकर. पर पता नहीं क्यों ऐसा लगता है, इसे अपने घर को छोड़ने का दुःख नहीं हो रहा. वह अभी भी यहीं बाहर छत पर बैठी हुई है. वह वापस क्यों नहीं जा रही, मालुम नहीं. मोर कहाँ है पता नहीं.

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