पढ़ना

पहली बार वह कौन होगा, जिसने पढ़ने से पहले उसके लिखने वाले को जाकर बताया होगा कि वह उसके लिखे गए शब्दों को पढ़ने जा रहा है? इस वाक्य संरचना में वह सम्भवतः पुरुष है, परंतु वह कोई स्त्री भी हो सकती है, जिसने अपनी किसी सहेली के लिखे खत को, उसकी किताब पढ़ी हो और उसे बताया हो. वह कैसा लिखती है. यहाँ सवाल अभी किसी बहस का नहीं है. सवाल सिर्फ़ इतना है, इस बड़ी गोल-सी दुनिया में जब कहीं कोई कहता है, वह हमें पढ़ने जा रहा है, तब हमें किस भाव से भर जाना चाहिए? यह अपने आप में किन एहसासों को हमारे अन्दर भर देता होगा? पढ़ना सिर्फ़ शब्दों से गुज़ारना नहीं है, अपने अंदर एक समूची दुनिया को उतरने देना है. यह उतरना सायास नहीं है. हम कोई कोशिश नहीं करते, बस नीचे उतरते जाते हैं. पर अभी पढ़ने की प्रक्रिया पर नहीं कहने वाला. यह लिखने और उस लिखे गए अंश को किसी के द्वारा पढ़े जाने की सूचना के बाद उपजी कोई ऐसी चीज़ है, जिन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा. हम सब किसी ख़ास भाषा में किसी ख़ास क्षण में लिखने के लिए बैठते हैं. जब हम लिख रहे होते हैं, उस समय को कोई दूर से देखता होगा तब उसे कैसा लगता होगा?

इसे कल्पना में देखना कितना रोमांचक होता होगा. पर असल में ऐसा कभी कर नहीं पाया. कभी-कभी जब मन करता है, तब पर टाइमर लगाकर कैमरे से अपनी तस्वीर खींच लिया करता हूँ. उसमें भी बस यह मेज़ आ पाती है. उन एहसासों को महसूस करने के लिए उन पलों को फ़िर से अपने अन्दर बुनना पड़ता है. ऐसा ही तो कुछ होता होगा, जब कोई हमारी लिखी किसी पंक्ति से गुज़रता होगा. वह भी उसे किस सघनता से महसूस हो रही है, इसे कैसे भी करके मापा नहीं जा सकता. हो सकता है, उन ब्योरों को जिस ताप से लिखा गया हो, वह किसी पढ़ने वाले को उससे भी अधिक असहज महसूस करवाती जाये. असहज इसलिए कि उन्हें लगने लगे, हम न चाहते हुए किसी और की दुनिया में दाख़िल होकर उन सारी अवस्थाओं, स्थितियों को बेपरदा देखे जा रहे हैं.

पता नहीं मेरे साथ कैसे होता होगा. जब मैं किसी के लिखे को महसूस करने की कोशिश करता हूँ, तब सबसे पहले मेरा ध्यान इसी बात पर न जाने क्यों चला जाता है कि जो कुछ उनसे वहाँ लिखा गया है, क्या उसे असल में उन्होंने महसूस भी किया होगा? शायद यह किसी भी लेखक से कुछ ज़्यादा की माँग करना होगा. पर इतने सालों में ऐसा ही बनता गया हूँ. शैली से प्रभावित हुए बिना मेरे लिए सबसे ज़रूरी है, इमानदारी. अपने लिखे हुए और जिए हुए में कोई भी फाँक नज़र आते ही अनकहे दूरियाँ उभर आती है. यह अलगाव ख़ुद को बचा ले जाने के लिए सबसे ज़रूरी है. क्या जब कभी पाठक यहाँ आते होंगे, वह भी इन सवालों से जूझते होंगे? पता नहीं. पर मैं ऐसा ही हूँ.

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