असगर

असगर को मैंने कभी पढ़ाया था. यह मेरी स्मृति का इतना भर हिस्सा कब तक रहता, कह नहीं सकता था. उसके होने से जितना फ़र्क एक अध्यापक को होना चाहिए, उस छात्र के विद्यालय से निकल जाने के बाद वह उतने ही क्षणिक स्मृति कोश का हिस्सा होता. कभी नाम याद आता. तब याद आता. कोई असगर अली नाम का लड़का था. किसी बात को आसानी से नहीं मानने वाला. अपने दिमाग में बिठाने के लिए उसके सवालों से गुज़रते हुए देखता, वह सच में कहीं आगे जाकर उन प्रश्नों से एक बेहतर दुनिया बुन सकता है. यह संभावनाएँ अपने अन्दर बनाए रखने के लिए उसके प्रश्नों को सिर्फ़ ध्यान से सुनता ही नहीं उनके अपनी समझ से उत्तर देने की कोशिश भी किया करता. 

असगर अब नहीं है. याद नहीं आ रहा पिछले साल का कोई दिन रहा होगा या इसी साल के किसी दिन की बात है. पता चला जब तक सब उसे राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुँचाते, उसी मृत्यु हो चुकी थी. मुआयने के बाद डॉक्टरों ने बताया, ब्रेन हैमरेज. दिमाग की नस फटने से उसकी मौत अकस्मात् हो गयी. उमर ही कितनी थी उसकी? अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का. जो साल भर हुए बारहवीं पास करने के बाद इस दुनिया को अपनी नज़रों से देखने निकला था. शायद वह देख बहुत पहले से रहा था. इस घटना के हफ़्ते भर पहले उसने मुझसे बात की थी. वह ऐसे ही बीच-बीच में फ़ोन करता. पूछता. अब क्या करूँ सर जी? मैं उसे क्या करने को कहता. समझ नहीं पाता. कॉलेज में दाख़िला हो नहीं पाया था. उसके एक दोस्त का हो गया था. घर की हालत मुझे ठीक नहीं लगती थी. बिहार से आकर अपने भईया-भाभी के साथ नबी करीम में कहीं रहता था. नौकरी जल्दी से लग जाये, यही पूछता.

वह कभी-कभी फ़ेसबुक पर अभी भी दिख जाता है. कोई पेज जो उसने कभी लाइक किया होगा, उसे यह वेबसाइट सजेशन में दिखा देती है. अलॉग्रिथम को नहीं मालुम, वह अब कहीं नहीं है. उसने किसी संस्था के दूसरे लोगों के साथ मिलकर कई इतवार बच्चों की प्रतिभा को निखारने के लिए कार्यक्रम आयोजित किये. मुझे निर्णायक की हैसियत से कई बार बुलाने की कोशिश असगर ने की. पर हर बार ख़ुद को इतना क़ाबिल न मानते हुए मना कर देता. जब मना नहीं कर पाता, तब कोई ऐसा बहाना बनता पर वह आगे आने के लिए राजी कर लेता. पर जब अगली बारी आती, मैं फ़िर वही करता. उसे टाल देता. कहता कभी किसी और मौके पर मिल लेंगे. इस इतवार जाने दो. जल्द देखते है. 

पता नहीं इस बात ने एक व्यक्ति के रूप में मुझे कितना बदला होगा. शायद यही वह खटका है, जो अब किसी को टालने या बहाना बनाने से पहले कुछ देर सोचता हूँ. अगर हो पाता है, तब टालता नहीं हूँ. मिल लेता हूँ. सोचता हूँ, हम सब एक साथ, एक समय के भीतर सफ़र कर रहे हैं. साथ मिलते रहेंगे, तब शायद हम एक ठीक-ठाक इंसान बनकर उभरेंगे. नहीं तो हम कौन हैं? साठ-सत्तर साल जीने वाले एक हिंसक जानवर. और हो भी क्या सकते हैं?

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