व्यवहार

जब संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ अपना रूपाकार लेती हैं, या जब वह बन रही होती हैं और तब वह जिस रूप में हमारे सामने आती हैं, हो सकता है, जब वह पहली बार बन रही हों, तब उनकी शक्ल और सूरत वह न हो, जो हमारे सामने उभरकर आई है. यह भी कोई नहीं कह सकता कि इन संस्थाओं का विकास अविरुद्ध हो चुका है और इनमें परिवर्तन की कोई संभावना नहीं बची है. ऐसा बिलकुल भी नहीं है. उदहारण के लिए हमें ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त हुए सत्तर वर्ष हो चुके हैं. जब मैं कहता हूँ 'हमें', तब यह सबको साथ लेकर चलने वाली बात नहीं, मेरी चालाकी भर रह जाती है क्योंकि अभी भी हमारे समाज में कई सारे लोग ऐसे हैं, जो अभी भी राजनैतिक रूप से इस आजादी को अपने अन्दर महसूस नहीं कर पाए हैं. हो सकता है, वह आर्थिक रूप से या सामजिक सांस्कृतिक रूप से आज भी कई सारे बन्धनों से जकड़े हुए हों. क्या आपको ऐसा नहीं लगता? अपने चारों तरफ़ नज़र दौड़ा कर देख लीजिये. अगर आँखों को तकलीफ़ नहीं देना चाहते तब अपने परिवार में तो झाँक ही सकते होंगे. देखिये. अपने परिवार की संरचना को पढ़ जाईये. मुश्किल नहीं है.

कई सारी बातें रुई के फाहे की तरह उड़ जाएँगी. खाना कौन बना रहा है? आप ही बना रही हैं. तब भी आपको ठंडी रोटियाँ खानी पड़ रही हैं. कभी ख़ुद से पूछा है क्यों? शायद नहीं. पूछ कर देखिये. क्यों नहीं कभी उस लड़के की तरफ़ देख पायीं, जो कभी आपके साथ बस की सीट पर बगल में बैठा हुआ था. कहीं इस डर के मारे मरी तो नहीं जा रही थीं कि उसका हाथ छू गया तो क्या हो जायेगा. हो सकता है, कई पढ़ने वाले सज्जन, इसे बहुत अवास्तविक स्थितियाँ मानकर कन्नी काटने जा रहे होंगे. पर उन्हें पता है, यह उतना ही सच है, जितना कि उनका इस दुनिया में होना.

सरल शब्दों में इसे अगर हम कहना चाहें, तब हम इस दुनिया को स्त्रीवादी नज़रिए से देखते हुए कह सकते हैं कि यह पुरुष सत्तात्मक समाज की व्याख्या करने का एक तरीका भर है. कहाँ, किसने, कितना जकड़ा हुआ है, उसकी निशानदेही की एक युक्ति है. यह व्यवस्था नहीं, कई संस्थाओं का गुंजलक भी है. जिसमें कई भूमिकाएं स्त्री और पुरुष मिलकर निभा रहे हैं. जिसमें जाति से लेकर वर्ग तक, बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सब विभाजित हैं.

अगर यह सब लिखते हुए मैं एक डिक्टेटर की तरह लग रहा हूँ, तब इसका मतलब है, कोई कितना भी चाहे इन भूमिकाओं से बच नहीं सकता. निकलने की कोशिश कितनी भी करे, सब पढ़ा लिखा धरा का धरा रह जाता है. यदि आप देखना चाहें, तब देखिये मैं किस हैसियत से यह सब बातें कह गया. अगर तब भी न समझ आ पाए,  तब एक सिरे से आप पिछली तीनों पोस्टों को एकबारगी पढ़ जाईये. और जब मैं इसे लिखना शुरू कर रह था तब सिर्फ़ यह कहनें वाला था कि इसे सिर्फ़ और सिर्फ़ पिछली पोस्ट का तफसरा माना जाये. पर ऐसा हो न सका.

{पिछली किश्तें: पहली: बदलना , दूसरी: साँचा , तीसरी: व्यवस्था }

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