लिखना

कभी-कभी हम बहुत दूसरे 'मोड' में होते हैं. लिखने में अजीब क़िस्म का दोहराव दिख भी रहा होता है, पर जबतक यह किसी की पकड़ में आये, हमें ख़ुद इसे बदल लेना चाहिए. शायद यही मैं अपने साथ नहीं कर पा रहा. इस जगह जब आया था, तब एक जगह छोड़ चुका था. वह ऐसा लूप था, जिसके चक्कर में कई बारीक चीज़ें तो नज़र में आती रही होंगी, पर ख़ुद के अलावे कुछ और नज़र नहीं आता था. अब ऐसे में मन ख़ुद को कुछ इस तरह गढ़ने लगा कि ख़ुद को छोड़कर सब कुछ लिखने लगा. यह मेरे लिए उन दिनों के दबावों से छूटने के काफ़ी था पर इसके चलते कई और चीज़ों ने मुझे आकर घेर लिया. दिक्कत यह है कि यह बात बहुत अन्दर तक धँसने के बाद ही किसी चने के अंकुरित दाने की तरह रुमाल से बाहर आने के बाद ही दिख पाती है. मिट्टी, पानी, हवा में घुलते हुए उसका तनिक भी एहसास होता तो देखते क्या रह गया है. लिखने के दरमियान मैं ख़ुदको बहुत सचेत क़िस्म का लेखक मानता हूँ. जो बारीकी से चालबाजियाँ करने में माहिर ही नहीं है, चीज़ों को पैरों के नीचे ऐसे छिपा ले जाने में उस्ताद है कि पता तब चलता है, जब बगल में काँख के बाल दोबारा बड़े होकर चुभने लगते हैं.

यह पन्ना लिखते हुए आँख चुभ रही है. नींद आने के बिलकुल पहले गर्दन में पीठ के साथ दर्द होना शुरू हो चुका है. पर अभी भी लग रहा है, जो लिखने की गरज से अबकी बार बैठा था, उसका छटांक भर भी नहीं कह पा रहा. यह छटपटाहट अजीब तरह से परेशान कर रही है. देखने से लगता है, यह अन्दर का गुस्सा है, जो किसी चीज़ से खीजने से बन रहा होगा. पास जाने के मौकों में, लिखने को छोड़कर, इस शहर में कोई एकांत नहीं है. रचना के क्षणों में हम कहाँ किस स्तर पर जाकर ख़ुद की बात कर रहे होते हैं, यह सबको बताने का मन भी हो, तब भी कुछ नहीं कहा जाता. लगता है, यह उस स्तर पर है, जहाँ वह इसे महसूस करते ही छिटक जाएगा. हो सकता है, यह मेरे मन में बनने वाली विचार प्रक्रिया में कहीं कोई खटका रह गया हो, जो बार-बार मुझे परेशान कर रहा है? इसे उलझन कहने का मन नहीं है. पता नहीं यह क्या है. यह जो भी है, नीम के पेड़ का काँटा है. चुभ नही रहा. कड़वा लग रहा है.

इसे समेटते हुए बस एक बात लगती है. अभी भी मेरे अन्दर कहीं कोई बात घर कर गयी होगी कि जैसा लिख सकता हूँ वैसा नहीं लिख रहा. थोड़ा टिक कर लिखने से इस ख़याल से हम बाहर आ सकते हैं. पर मुश्किल है इन दीवारों के अन्दर बंद रहते हुए मन की गिरहों को खोल पाना. अभी भी यह सोच रहा हूँ, इस जगह ऐसा कुछ भी नहीं लिखा, जिसने मेरी सीमाओं से बाहर ले जाने में मेरी मदद की हो. यह भी हो सकता है, अवचेतन में यह एक बहुत छोटा बिंदु पेन्सिल से लिख कर कहीं भूल गया होऊँगा. लिखने के लिए किन तरहों से लिखा जा सकता है, इसे दोबारा सोचने की ज़रूरत अन्दर-ही-अन्दर मकड़ी के जालों में उलझी हुई मधुमक्खी बनकर अपने घर का रास्ता याद करते हुए नयी जगह पहुँच जाने का डर भी काम कर रहा होगा. इसे डर न भी कहें, तब भी यह इससे कम नहीं होगा.

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