विद्रूप का शिक्षाशास्त्र

हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसकी पहचान करने वाले कौन-कौन से औजार हमारे पास हैं! हमें एक बार फिर उन्हें दुरुस्त कर लेना होगा। हमें पता होना चाहिए कि हमारे साथ क्या हो रहा है! जो हो रहा है, वह इस पृथ्वी के किसी खास भौगोलिक खंड में एक नाम से पुकारे जाने वाले सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक निर्मिति के भीतर निर्मित होते एक देश में कैसे उसी आकार को प्राप्त हो रहा है? इसके लिए हमारी समझ में कौन-सी खिड़कियां काम आ सकती हैं? हम अपने आज में कल से आने वाली ध्वनियों को कैसे लिपिबद्ध करते हुए भविष्य की पदचाप सुन सकते हैं! शर्तिया यह काम किसी पीपल के पेड़ के नीचे नहीं होगा। यह शिक्षाशास्त्र हमारे विद्यालयों की कक्षाओं में निर्मित होगा।

जरूरी यह है कि उन कक्षाओं में हमारे समाज की बुनावट के अनुरूप समान भागीदारी हो। अगर आज हम लिंग, भाषा, वर्ग, जाति, धर्म, संप्रदाय आदि को एक कक्षा के भीतर नहीं देख रहे हैं, तो हमें खुद से सवाल पूछना चाहिए। यह सिर्फ इस लिखी हुई हिंदी में नहीं, हर उस भाषा में पूछा जाना चाहिए, जिनके अंदर अपने देश के लिए कुछ सपने थे और सबके सपने मिल कर एक ऐसे राष्ट्र की संकल्पना को बना रहे थे, जहां किसी भी आधार पर किसी भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं थी और न है।

सवाल पूछिए कि वे कौन हैं, उनके कौन-से स्वार्थ इस तरह के कृत्रिम वर्गीकरणों से पुष्ट होते हैं? वे क्यों नहीं चाहते ऐसे समृद्ध, भेदभावरहित वातावरण में हम इस देश को बुनें? कोई तो जरूर होगा, जिसे आने वाले कल में किसी संस्था, व्यवस्था या समूह के रूप में हम पहचान जाएंगे। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि विद्रूपों से भरी इस सामाजिक व्यवस्था को उघाड़ कर देख पाने का कौशल हम कहां से सृजित करें? वे कहीं बन रहे हैं? अगर हम उनके बनने की कोई जगह तय करना चाहें, तब हमें उन शैक्षिक प्रशिक्षण संस्थानों को बारीक नजर से देखना होगा। हमारे भावी अध्यापक क्या इन प्रश्नों से जूझ रहे हैं? उन्हें भविष्य में मिलने वाली भूमिकाओं के प्रति उनका क्या नजरिया है? क्या वे इन सवालों से कभी अपने अंदर रूबरू हुए हैं? हो सकता है कि उनकी जिरह इन सतह पर दिखने वाली परिस्थितियों से काफी जटिल और उलझा देने वाली हो। लेकिन अगर हम उम्मीद कर सकते हैं, तो इन्हीं भविष्य के अध्यापकों से। प्रश्नों का सकर्मक दिशा में चले जाना इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है।

फर्ज कीजिए कि हम लोकतंत्र नामक शासन-प्रणाली में अपना सामाजिक जीवन जी रह रहे हैं। इसी लोकशाही में सत्ता पहले आदिवासियों को जबरन विस्थापित करती है और इसे सबके विकास के नाम पर प्रायोजित करती है। दलितों की हत्याएं होती हैं, स्त्रियों पर अत्याचार खत्म होने का नाम नहीं लेते। जो प्रवासी मजदूरों को अपने राज्यों से भागते हैं, वे खुद को सबसे बड़े देशभक्त सिद्ध कर देना चाहते हैं। इसी देश के इतिहास में ऐसा दिन भी आता है, जब हम देखते हैं कि सरकार के नियंत्रण में काम कर रहे बैंक, अपने द्वारा बड़े-बड़े उद्योगपतियों को दिए गए हजारों-करोड़ों रुपयों के कर्ज अचानक ‘राइट आॅफ’ कर देते हैं। वहीं हम देख रहे हैं कि देश के किसान इन्हीं बैंकों के चंगुल से निकलने के लिए आत्महत्या का निर्णय लेने को अभिशप्त हैं।

क्या कभी कोई जान पाएगा कि बैंकों ने अर्थशास्त्र के किस सिद्धांत के अनुसार ऐसा निर्णय लिया? विकास का यह कौन-सा ‘लोकतांत्रिक मॉडल’ काम कर रहा है? किन वैचारिक आधारों पर ऐसे निर्णय हम सबकी एवज में ले लिए जाते हैं। हमें कौन समझाएगा कि यह लोकतंत्र नहीं है। यह किसकी जिम्मेदारी है? भारत बड़ा देश है। कुछ भोथरी या स्थूल दिख जाने वाली परिघटनाओं के मध्य ऐसे कई दृश्य होते होंगे, जो हम कभी जान भी नहीं पाएंगे। लेकिन क्या वे इसी शासन प्रणाली में बहुमत का निर्णय कह कर हम पर थोपे जाते रहेंगे?

यह एक बन रहे देश के लिए त्रासद स्थिति है कि इन जटिल सवालों से वह बचता रहा है। यह एक विकट समय है, जब हमें इस काल को समझने के लिए उन सवालों को ऐसे बनाना होगा, जिनके करने के बाद हत्या का भय न सताए। कहीं कोई डर न हो। डर सवाल को मार देता है। हम इस दौर में इसी तरफ बड़ी तेजी से भागे जा रहे हैं और कोई देख भी नहीं रहा है। मेरी समझ से कोई अज्ञात प्रशिक्षु अध्यापिका होगी, जो अपनी कक्षा में बच्चों के भीतर सवालों के बीज बो रही होगी। वहीं कोई बच्चा होगा जो अपनी कल्पना में पत्र लिख कर हमारे शासक से पूछ रहा होगा कि ‘आप यह कैसा देश बना रहे हैं, हमारे लिए?’ यही आशा हमें बचा ले जाएगी। 

{मंगलवार, तारीख़ 22 नवम्बर. जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे' में. इसी शीर्षक के साथ. प्रिंट में, पढ़े या वर्ड में.}

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