छूटता मौसम

अभी दो दिन हुए होंगे, अपनी अक्टूबर की एक पोस्ट पर नज़र गयी. वहाँ लिखा था, पैरों में अब ठण्ड लगने लगी है और पानी सुबह और ठण्डा हो जाता है. यह तीन साल पहले लिखी थी. अभी भी कुछ-कुछ तो लिख ही देता हूँ. अँधेरा जल्दी होने लगा है. पर मौसम में वह बात नहीं. धूप तो माशाअल्लाह अप्रैल की तरफ़ जाती दिख रही है. पर ऐसा तो हो नहीं सकता कि इन दिनों की ढलती शामों में सर्दी मुझे पकड़ न सके. अभी इसी महीने के दूसरे शनिवार को जो गला बैठता गया, इसने तो रातें हराम कर दी. लगा पहली बार ऐसा हुआ है, जब गर्दन के इर्दगिर्द अजीब सी जकड़न किसी भी करवट लेटने नहीं दे रही थी. दायीं तरफ़ करवट लेने में जो सहूलियत थी, वह बायीं तरफ़ हुई तो उसका असर उसी तरफ़ की नाक पर सुबह उठकर दिखता. बायीं नाक एक दम जाम. कितना भी ज़ोर लगा लो, बलगम निकलने का नाम नहीं लेता. नमक डालकर गरारे करने पर भी कुछ आराम नहीं मिलता देख और आवाज़ बैठ जाती. कभी सुनी है गरारे करने के बाद उससे निकलती फटे बाँस की आवाज़. फ़ोन पर जिससे बात करता, वही उलटे पूछ लेते. कैसे हो. तबियत तो ठीक है न? कितनी बार और कैसे-कैसे उन्हें बताता कि इस गले ने हमेशा मुझे इतना नहीं इससे भी जादा तंग किया है.

इस बार तो यह हुआ कि बस आवाज़ ही बदली बदली लग रही है. फ़िर इस बार मुझे ज़रा इस बार यह बात कुछ देर से समझ आई कि इस जुखाम से लड़ते-लड़ते कुछ भी कर लो, हफ़्ते भर तो इस कदर जूझना पड़ता है, जैसे नाक में कभी जंग ही न लगती हो. ऐसा नहीं है यह इसी बार हुआ है. जैसे ही मौसम थोड़ा बहुत बदलता है, इसकी पहली दस्तक मुझ पर होती है. आती हुई ठण्ड और जाती हुई ठण्ड. शायद हम जैसे लोग इसी वक़्त सबसे बेपरवाह होते हैं. हर बार अपने मन ही मन में यह कहता रहता हूँ, इस बार गला ठीक हो जाये तो ठंडी चीज़ की छुऊँगा भी नहीं. पर यह दिन इतनी देर तक रह जाते हैं कि जाते-जाते फ़िर उसी ठण्ड की चपेट में आकर सहम जाता हूँ. 

हो सकता है, एक दिन ऐसा आये जब इन्हीं क्षणों को अपने अन्दर इस बदलते मौसम को महसूस करने के 'मकैनिज़म' की तरह देखने लगूं.  इसमें किसी वैश्विक ताप और अल नीनो इफेक्ट की ओट में छिप जाने की कोई कोशिश नहीं है. बस बात इतनी सी है कि इस तस्वीर में जिस तरह का धुँधलका है, उसे अपने आस पास महसूस नहीं कर पा रहा. ऐसे किसी भी चिन्ह को न देख पाने की छटपटाहट अजीब तरह से अपनी तरफ़ खींचती रहती है.

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