बेचैनियाँ

रात कैसी-कैसी बात कर गया? पता नहीं. पूरी रात सोचता रहा. हम ही रहे होंगे, जो दुनिया को कागज़ पर उतारने से पहले उसे जी भर देख लेने की ज़िद से भर गए होंगे. फ़िर यह कैसे हुआ कि उन कुछ जिल्दों में अपनी दुनिया को ढूंढने लगे. कुछ तो है जो छूट रहा है. हो सकता है, यह अँधेरे में कुछ न दिखने के पास आया कोई खुरदरा ख़याल रहा होगा. पर नहीं. ऐसा कुछ नहीं है. हुआ बस यह है, यह बेचैनियाँ कहीं गुम हो गयी हैं. लिखने के लिए जो घड़ियाँ चुराता रहा था, उनको अनदेखा करना इस तरफ़ ले आएगा, सोचा न था. सोचा तो पता नहीं क्या क्या था? पर हो वही रहा था. 

यह अचानक तो हुआ नहीं होगा कि सब उस पुराने पते पर ठिठक कर रह गए. उसकी गर्माहट से बाहर नहीं निकल पा रहे. निकलना नहीं चाह रहे. यह सिर्फ़ एक मंजिल ऊपर नीचे आते जाने की बात नहीं है. सीढ़ियों पर कुछ निशान कम भी रह गए होंगे. जिनसे ख़ुद को पहचान जाऊँगा, वह रंग भी कहीं नहीं दिख रहे. कभी-कभी तो पिछले पन्नों पर लौट कर लगता है, कहाँ से कहाँ पहुँच गया? शायद कुछ नज़र आये तो बता पाऊं. या कुछ भी न कहूँ. कहने या न कहने से जादा ज़रूरी उन ख्यालों का अपने अन्दर उमड़ना-घुमड़ना है. उनका दिख जाना है. उनका नहीं दिखना है.

ख़ुद ने वह सारे अवकाश ख़त्म कर दिए जो कागज़ तक ले आते थे. उन बैठकों में मन कहीं कुछ-न-कुछ नोटिंग लिया करता. पूरा का पूरा दृश्य दिमाग में फ़िल्म की तरह रोल होता रहता. कुछ कहने की ज़रूरत थोड़े होती थी. सब ऑटोमेटिक चलता रहता. पर अभी न जाने क्या हुआ कि इन बातों को जब लिखने की कोशिश कर रहा हूँ तो दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा. शब्द भी गलत टाइप हो रहे हैं. शायद वह हड़बड़ी में है, या इस कमरे से अभी के अभी निकल जाने की फ़िराक में होगा. भागना नहीं है, कहीं जाना है. जाकर कुछ कहना भी है.

कल पूरा दिन इसी उधेड़बुन में लगा रहा. कहाँ हॉल्ट कर गयी गाड़ी? इतना रुकने के लिए कहा नहीं था. फ़िर क्यों हुआ? समझना इतना भी मुश्किल नहीं है. शायद यहाँ से भी कहीं और ठिकाना बनाने से पहले या अनमने होते रहने से बेहतर है न लिखना. जो पहले लिखने से सोचा नहीं करते थे, ऐसे सोचने लगे तब लिखने वाली प्लेट थोड़ी तो ख़िसक ही जायेगी. यह पैरों तले ज़मीन खिसकने जैसा ही है. मन को धकेलना होता है. जहाँ उसे कुछ भी न लिखे जाने लायक नहीं लगता. तब जाकर मौसम में उमस महसूस होती है. पसीना माथे से टपकने को होता है. रुमाल को जेब में उँगलियाँ जब नहीं ढूंढ पाती, तब पूरी बाजू की कमीज़ ही काम आती है. पिछला पता यही बाजू थी कमीज़ की. इसे वैसे होने में तो न जाने कितने साल लगेंगे. या हो सका तो साल भर में बंद होते होते यह हो भी जाये.

{तस्वीर हवाबाजी के लिए नहीं है, असल है. और पिछली रात की पोस्ट का लिंक भी दिए दे रहा हूँ}

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

उदास शाम का लड़का

बेतरतीब

हिंदी छापेखाने की दुनिया

आबू रोड, 2007

मोहन राकेश की डायरी