छठा साल..

आज छह साल पूरे हो रहे हैं. इन्हें भरने की तरह लेना चाहता हूँ. इस दिन की कोई हड़बड़ी महसूस न कर पाने का भाव, पता नहीं मुझे कैसा बना रहा होगा? पर यह ऐसा ही है. बिलकुल सादा. इस सघनता को अपने अन्दर उतरने देने के लिए कोई और साधन मेरे पास फ़िलहाल नहीं है, जिसे तुरंत दूसरी तरफ़ पहुँचा सकूँ. इन सालों में कितनी शानदार चीज़ें की जा सकती हैं. कितना घूमा जा सकता है. कहीं ठहर कर कोई किताब पढ़ी जा सकती है. उसके पन्नों को याद रखा जा सकता है. वह याद हमें लिखने के लिए बार-बार धकेल सकती है. मैंने भी किताब लिखने की सोची. यह मेरी किताब के किसी सिरे के कोई पन्ने ही होंगे. अभी बिखरे दिख रहे हैं पर कभी इत्मीनान होगा, तब इन्हें करीने से लगाकर उन्हें उस शक्ल में ढाल दूँगा. सबको जिल्द पसंद आती है. बिखरे पन्ने नहीं. फ़िर जिनकी जिंदगियों में डर है, वह सब कुछ तरतीब से सुनना चाहते हैं. मैं भी उतना ही डरा हुआ हूँ, जितनी मेरी पंक्तियों में झाँकते चहरे. वह चहरे भी मेरी आँखों से होते हुए उन जगहों पर रातरानी के फूलों की सुगंध की तरह बिखर जाते होंगे. उनका भी वक़्त होता होगा. कब खिलना है. कब किसे दिखना है. कब किसी को बिलकुल भी नहीं दिखना है. धुँधला दिखना भी कुछ दिखना है? यहाँ सब धुँधला ही है. कुछ दिख नहीं रहा है. सब छिप रहा है.

इन सालों में सुनता रहा हूँ, कि इस तरह के लिखने को लोग लिखने में शामिल नहीं करते. कितनी बार तो कह भी चुका हूँ, हम उनकी बात सिर झुकाकर मानते हैं. वह बिलकुल सही कह रहे होंगे. यह लिखना नहीं कुछ कतरनों को कहीं टांक कर चले जाना है. कहीं कोई किस्सा है, कहीं किसी दुःख के दिन की याद. कोई टीस अन्दर तक रिसती-रिसती जब सूख नहीं पाती, तब उसे इस धूप में डाल देते हैं. ताकि कपड़े भी सूखते रहे और इनके नमकीन निशानों की कुछ स्मृतियाँ कहीं बची रह जाएँ. बचे रहना एक चालाकी है. सचेत दिमाग की उपज है. शायद जो इसे लिखना नहीं मानते होंगे, उनके यहाँ यह लिखना इतना सजग नहीं होता होगा. वह भावातिरेकों में डूबे हुए कुछ वक्तव्य रहा करते होंगे या कुछ और. हो सकता है, वहीं से कई क्रांतियों के रक्तबीज उन लोगों ने देख लियें होंगे. इसलिए हमें खारिज करने पर तुल गए होंगे. इतिहास में यह तौलना ही कई विधाओं के जन्म का हेतु रहा है.

हो सकता है, वक़्त के किसी पड़ाव पर यह लिखना सब छूट जाये. तब लौट कर हम यहाँ वापस आएँगे. लौटना कलम उठाने के लिए होगा. कागज़ पर कुछ लिखने के लिए भी. पर इन बीतते सालों में हम कहाँ पहुँचे और हम यहाँ लगातार क्यों लिख रहे हैं, ऐसे सवालों के कोई तयशुदा जवाब न मिल पाना किसी भी दिक्कत को पैदा नहीं करते ऐसा नहीं है. यह उलझाने और लगभग घंटों वक़्त बिताने के लिए बिलकुल सही सवाल हैं. पर इसके जवाब से हम किस चीज़ को सुलझाने वाले हैं, यह पता नहीं चल पाया है. आज भी इसलिए लिख रहा हूँ ताकि यह तारीख़ इस जगह छप जाये. याद रहे के हम आज इतने साल पूरे कर रहे हैं. यह किसी उत्पादक शब्दावली में फिट नहीं हो रहा है और न विकास की किसी नव उदारवादी परिभाषा से इसका कोई सीधा-सीधा ताल्लुक है. लेकिन सोचने वाले तो यहाँ तक सोचने लगते हैं के इन सबका हासिल क्या है? तो दोस्त, हासिल कुछ नहीं, बस बड़ा सा सिफर है.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

खिड़की का छज्जा

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

जब मैं चुप हूँ

लौटते हुए..

टूटने से पहले

पानी जैसे जानना