बाकी सब

अब जब दिल्ली मे शामें और जल्दी ढलने लगी हैं, अँधेरा जादा सुनहरा लगने लगा है. सब अपने-अपने रंग चुनते होंगे, हमने भी इसे चुना है. मन से नहीं, दिल से. दिल के बेचारे बनने से पहले, मन भुट्टे खरीदते हुए, कहीं किसी याद के आ जाने के दरमियान बहुत कुछ घट जाने तक ऐसे ही चलता रहता है. मक्के के दाने किसी के दाँतों से भी लगते होंगे. लगना किसी खिड़की से बाहर झाँकने जैसा होता होगा. जैसे वह जब अपनी दोस्त के साथ चलता है तो दोनों हाथों को कमर पर पीछे बांध लेता है. ध्यान से देखने पर कभी लगता वह इन हाथों के वजन से कभी-कभी थोड़ा आगे भी झुक जाता होगा.

हम सब उनको दूर से चलते हुए देखते और अपने अन्दर दाख़िल होने तक अपने पास आने देते. इसके आगे अगर कोई कहे, स्याह होती इन शामों को थोड़ा और रूमानी होते देखते, शाम को काली कहना हमारे बस में नहीं. वैसे तुमने बिलकुल ठीक समझा. हम न नस्लभेदी हैं, न रंगभेदी जो भूलकर भी ऐसी टिप्पणी करेंगे. हम टिप्पणी तो दूर, इस पर भी बात नहीं करने जा रहे कि कैसे हम उन शामों में सपने बुनते हुए ख़ुद को देखा करते.

देखना संभावनाओं को बुनने का पहला अनिवार्य कदम है. बाकी सब इसके बाद.

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