छुओ

पता नहीं मेरे अन्दर यह बात कब घर कर गयी. किसी नयी किताब को इसलिए नहीं छू पाता के उन पन्नों पर उँगलियों के निशान न छप जाएँ. आँखों के बिलकुल सामने पता नहीं कौन-कौन सी किताबें, कब से पड़ी हुई हैं. सच, इन्हें पड़ा हुआ ही माना जाये. इन्हें कभी नहीं छू पाता. इसे आदत नहीं कह सकते. पता नहीं यह क्या है. यह जैसा भी है, है. छूने के लिए एक आदिम इच्छा का होना ज़रूरी है. वह कौन रहा होगा, जिसने सबसे पहले स्त्री का स्पर्श किया होगा? किसने सबसे पहले किसी पुरुष को छुआ होगा? असल में उन्हें छूने वाले वह ख़ुद रहे होंगे. हमसे पहले हमें कौन छू पायेगा? इसका पिछली पंक्ति के अलावे इसका कोई जवाब नहीं है. हम भले अपनी उँगलियों से छूने के क़ाबिल न हों पर गर्भ में उन असीम एकांत के क्षणों में हम ख़ुद को छू रहे होते हैं. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे होते हैं, हम इस छूने को भूलकर फ़िर से छूना सीखने लगते हैं. सब मिलकर बताते हैं किसे, कब, कैसे, कहाँ छुआ जा सकता है और किसे कब, कैसे, कहाँ नहीं छुआ जा सकता. इस सीखने-सिखाने में पूरा समाज छिपा रहता है. हमारी खोखली नैतिकता से लेकर हमारे जीने-मरने के सवालों को समेटे हुए हम भी बिन छुए चुपचाप सब देख रहे होते हैं. देख कर छू रहे होते हैं.

मेरा भी मन करता है, किसी अनछुए स्पर्श को अपनी रगों में महसूस करते हुए उसकी धड़कनों को सुनता रहूँ. पर कोई नहीं सुनता अपने कानों से उन झींगुरों की छुअन. उन ओस की बूँदों का गिरना. वहाँ दूर खड़ी एक लड़की की आँखों में न मालुम किस कारण आ गए आँसुओं को. मैं छूना चाहता हूँ, हर बहता हुआ आँसू. उन आँसुओं में बहती हुई कहानियाँ. उन कहानियों में छिपे हुए प्रेम से लेकर घृणा की हद तक चले गए मनोभाव.

सिर्फ़ हथेलियों के पोरों से नहीं, मन के भीतर उग आई उँगलियों से भी छूना चाहता हूँ. छूना चाहता हूँ मम्मी के हाथों का सख्त हो जाना. उनकी फटी एड़ियों का दर्द. चेहरे पर उतर आई झुर्रियाँ. पापा की आँखों को भी छूना चाहता हूँ. उन सपनों को भी छूना चाहता हूँ, जो हमें अनछुए वहाँ न जाने कब से हैं. तुम्हें भी अपने सबसे कोमलतम स्पर्श से छूना चाहता हूँ. तुम जब पास नहीं रहती तो हर लड़की को तुम समझता हूँ. पर मुझे पता है, उन्हें छूना नहीं है.

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