तुम से मैं तक..
अगर अपने आप को कुछ कह सकता हूँ तो सिर्फ़ दुःख का कथावाचक कह सकता हूँ. मैंने दुःख के अलावा कुछ नहीं लिखा. तुम कहती रही, तब भी नहीं. असल में मेरे जैसा भगोड़ा कोई नहीं होगा. इसे शिष्ट भाषा में ‘पलायन कर जाना’ भी कहते होंगे पर अब इस शब्द से कोफ़्त होती है. आज ख़ुद के लिए मैंने विनोदकुमार शुक्ल हो जाना तय किया है. मैं भी अपने दाम्पत्य के इन दिनों पर कुछ कहुँगा. जो कहुँगा उसमें भाप जितना सच होगा. ऐसी कहानी, जिसमें कोई भी बात सच नहीं होगी. सच और झूठ से फर्क किसे पड़ता है? किसी को नहीं. सबके अपने-अपने सच और झूठ हैं. बस तुम हो, थोड़ी समझदार लगती हो. तुम्हारे आगे मैं कहीं नहीं ठहरता. तुम ही मुझे संभाले रहती हो. जब भी खो जाता हूँ, याद कर लेता हूँ. थोड़ी अपनी पहली मुलाक़ात, थोड़ी तुम्हारे चेहरे की मुस्कराहट. बेदम होने से हरबार तुम बचा लेजाती हो. इसलिए खो भी जाता हूँ तो अब डर नहीं लगता. तुम हो न. हरबार मुझे बाहर निकाल ले जाने वाली. पर सच कहूँ, तुम्हें कभी नहीं बताता, तुम इसतरह मेरा कौन सा काम कर रही हो?
इन पंक्तियों को जब इस तरह ढाल रहा हूँ, तब भी मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारे सिवा कोई इसे समझ नहीं पा रहा होगा. मैं कुछ न भी लिखूं, तब भी तुम समझ जाओगी, मैं क्या कह रहा हूँ. यहाँ एक-एक शब्द में किस तरह चीज़ों को छिपा ले जा रहा हूँ, कोई कभी नहीं जान पायेगा. मैंने भी जानना छोड़ दिया है. नहीं छोड़ता तो पीछे छूट जाता. मेरे लिए यह समझाना बहुत मुश्किल है, कहाँ? कोई पीछे कहाँ छूटता होगा? हम दोनों एक दूसरे के अन्दर छूट गए हैं. ऐसा ही सब अपने लम्बे अतीत में यह जगहें तय करते आये होंगे. हमने अपने अन्दर के एकदूसरे में यह जगह तय की. कहीं कोई और होगा जो किसी और मुकाम को अपने अन्दर कुछ अलग तरह से बुन रहा होगा.
हम भी इन दिनों को इन काली अँधेरी रातों से भी बहुत महीन बुन रहे हैं. कि कभी यह दिन हमारी स्मृतियों से बाहर न दिख जाएँ. हो सके तो मैं ऐसी दवाई की भी खोज करना चाहूँगा, जिसके खाने के बाद से हम अपनी हर उस याद को भूल जाएँ जिसे हम भुला देना चाहते हैं. ऐसे दिन ऐसी रातें कितनी खुशनुमा होंगी, जहाँ कोई स्याह याद नहीं होगी. पता नहीं हमारे सारे देखे सपनों को किसकी नज़र लग गयी. शायद हम ही उन्हें घूर कर देख रहे होंगे कभी. हम वादा करते हैं, एक बार तुम सच हो जाओ, तुम्हारी तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखेंगे कभी.
जैसे मैं भी नहीं देखना चाहता अपने वह सारे उदासी भरे पन्ने. सच कहूँ इसलिए लिखे से बचने लगा हूँ. यह मेरा नया ‘डिफेंस मकेनिज्म’ बनता दिख रहा है. पर सच इन उदासियों को आज जब डायरी में कागज़ पर स्याही वाली कलम से लिखा, तब लगा, अपने में लौट रहा हूँ. यहाँ से भागकर इस बार वहीं ठहर जाऊँगा. तुम्हारे साथ.
इन पंक्तियों को जब इस तरह ढाल रहा हूँ, तब भी मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारे सिवा कोई इसे समझ नहीं पा रहा होगा. मैं कुछ न भी लिखूं, तब भी तुम समझ जाओगी, मैं क्या कह रहा हूँ. यहाँ एक-एक शब्द में किस तरह चीज़ों को छिपा ले जा रहा हूँ, कोई कभी नहीं जान पायेगा. मैंने भी जानना छोड़ दिया है. नहीं छोड़ता तो पीछे छूट जाता. मेरे लिए यह समझाना बहुत मुश्किल है, कहाँ? कोई पीछे कहाँ छूटता होगा? हम दोनों एक दूसरे के अन्दर छूट गए हैं. ऐसा ही सब अपने लम्बे अतीत में यह जगहें तय करते आये होंगे. हमने अपने अन्दर के एकदूसरे में यह जगह तय की. कहीं कोई और होगा जो किसी और मुकाम को अपने अन्दर कुछ अलग तरह से बुन रहा होगा.
हम भी इन दिनों को इन काली अँधेरी रातों से भी बहुत महीन बुन रहे हैं. कि कभी यह दिन हमारी स्मृतियों से बाहर न दिख जाएँ. हो सके तो मैं ऐसी दवाई की भी खोज करना चाहूँगा, जिसके खाने के बाद से हम अपनी हर उस याद को भूल जाएँ जिसे हम भुला देना चाहते हैं. ऐसे दिन ऐसी रातें कितनी खुशनुमा होंगी, जहाँ कोई स्याह याद नहीं होगी. पता नहीं हमारे सारे देखे सपनों को किसकी नज़र लग गयी. शायद हम ही उन्हें घूर कर देख रहे होंगे कभी. हम वादा करते हैं, एक बार तुम सच हो जाओ, तुम्हारी तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखेंगे कभी.
जैसे मैं भी नहीं देखना चाहता अपने वह सारे उदासी भरे पन्ने. सच कहूँ इसलिए लिखे से बचने लगा हूँ. यह मेरा नया ‘डिफेंस मकेनिज्म’ बनता दिख रहा है. पर सच इन उदासियों को आज जब डायरी में कागज़ पर स्याही वाली कलम से लिखा, तब लगा, अपने में लौट रहा हूँ. यहाँ से भागकर इस बार वहीं ठहर जाऊँगा. तुम्हारे साथ.
Heart touching !!!
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंye kafi umda hai..best of all kehne ke liye sare padhne padhenge...'vaada karte hain tum ek baar sach ho jao mud ke bhi nahi dekhenge kabhi" - my favourite line in this text..
जवाब देंहटाएंफुसरत से, इत्मीनान से आना बार-बार. क्या पता, कुछ मिल जाये. कहीं रखा हुआ.
हटाएं