हम दोनों

दिन ऐसे ही हैं। सिलवटों वाली चादर की तरह। समेटे नहीं समेटे जाते। सोचता हूँ, काश! हम मशीन होते तो पता नहीं क्या होते? मौसम हमारे लिए जंग का सामान होता. मतलब, तब हम लोहा होते. लोहे होकर हम चुम्बक की तरफ़ खींचे चले आते. ऐसा नहीं है, हम अभी लोहा नहीं हैं. हमारे खून में जितना है, उसी के बूते तुम्हारी तरफ़ खिंचे चले आते हैं. उन यादों में हमदोनों हैं. साथ, कहीं दूर पहाड़ी पर ढलते हुए सूरज को देखते हुए डूब रहे हैं. डूब रही हैं हमारी तमन्ना, दिल, धड़कन और भी पता नहीं क्या-क्या? हथेलियों में हथेली लिए उन खून की धमनियों को महसूस करते उँगलियों में एक-एक बूंद के आने जाने के रास्ते को ढूंढते रहने के बाद उस घाटी में खो गए सूरज की परछाईंयों को गुम होते अँधेरे बंद करते जाते. 

हम दोनों भी गुम हो जाना चाहते हैं अँधेरे में. अँधेरा मतलब जहाँ एकदूसरे को हम भले देख न पा रहे हों, पर उन ख़ास गंधों से पहचानते हुए पास आते हुए हम थम जाते. पिघलती हुई ध्वनियों में किसी चिड़िया की अचीन्हीं आवाज़ घुलती रहती. घुलती रहती हवा में हमारी साँसें. उन सांसों में तुम्हारे होंठों पर लगे शहद की खुशबू.

अचानक हम दोनों एक सपने में हैं. सपने सा सबकुछ बह रहा है. बह रहा है, जैसे सब पानी हो. जैसे लहरें किनारे तक आने के लिए न जाने कितनी कोशिशें करती हैं. हम भी उन लहरों के सामने बैठे हैं. हम तब एकदूसरे को नहीं देख रहे, उन अनगिनत लहरों को देख रहे हैं. एकटक. हम भी तो कभी लहर थे. जो चले थे, किनारे तक पहुँचने के लिए. पर यह कोई कम आश्चर्यजनक नहीं था कि आज दो लहरें एकदूसरे के आमने सामने बैठकर एकदूसरे को देख रही हैं. सिर्फ़ देख ही नहीं रही हैं, अभी थोड़ी देर में उठकर एकदूसरे में समां भी जाएँगी. 

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