ख़राब पोस्ट का रफ़ ड्राफ़्ट

वक़्त बस गुज़र रहा है. इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है. अगर कोई भूमिका खोजना चाहे, तब वह सिर्फ़ इतना ही खोज पायेगा कि इतिहास के किसी क्षण में किसी भूगोलविद ने इस समय की संकल्पना को रचा होगा. वह खगोलविद् भी कहला सकता है. यह विषयों के विकासक्रम में ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात है. चूँकि हम न तो भूगोल कभी पढ़े हैं न खगोलविद्या से हमारा को लेना देना है इसलिए हम ज़रा इन सबसे बचकर रहते हैं. फ़िर भी महिना भर हुआ फ़िर से कलाई घड़ी पहनने की आदत डाल ली है. घड़ी पहनने से कुछ नहीं होता. वक़्त ऐसे ही बीतता रहता है. जैसे ठहरी हुई नदी का पानी. 

इन सभी बातों में एक अजीब क़िस्म का भटकाव है. जो दिख नहीं रहा. देखेगा भी नहीं. क्योंकि वह सतह पर नहीं, मेरे मन के भीतर है. कल पता नहीं वह क्या था कि आलोक और मेरे, हम दोनों अपने-अपने अचेतन में किस तरह एक-दूसरे का कोई अलग ही नाम ले रहे थे. पहले उससे हुआ, फ़िर मुझसे. इसे समझा नहीं जा सकता. हमें इसे समझने के लिए कोई दमदार तर्क ज़रूर चाहिए.

ऐसा क्यों हुआ होगा? इसका एक जवाब यह हो सकता है कि हम दोनों अपनी नींद को वक़्त से पहले छोड़कर बिस्तर से चले आये हों. वह तो खैर रात सो नहीं पाया और मैं सवा पांच बजे का उठा उल्लू बना बैठा था. मैं भी क्या बकवास लिखने बैठ गया और वक़्त जाया करने लगा. रात बारिश हुई है. वह बारिश मेरे अन्दर क्यों नहीं दाख़िल हो सकी यह भी बकवास को चालू रखने की एक तरकीब है. तरकीब क्या मेरा काम ही यही है. यही है एक काम.

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