मन करता है, मर जाऊं

कभी कहीं अपनी ही लिखी पंक्ति दोहराने लगा हूँ इधर. मन नहीं होता अब. अब ठहरकर कुछ देर देखना है. थोड़ा आराम करना है. मेरे आसपास जितने भी दोस्त, संगी-साथी हैं, वह कभी जान भी नहीं पायेंगे, मेरे अन्दर क्या चल रहा है? यह कोई अस्वाभाविक इच्छा नहीं है. हम सब कभी-न-कभी ऐसा सोचते होंगे. पलायन करने का यह बेहतर और उन्नत तरीका है. एक दिन मेरी इस इच्छा को कोई वैज्ञानिक खोज का नाम दे देगा और हम सब अचेतन में जाने के लिए आतुर हो उठेंगे. कोर्ट इसे इच्छा मृत्यु का संशोधित संस्करण कहकर ऐसा करने की अनुमति दे दिया करेंगे. पर यह आगे आने वाले कई साल बाद का परिवर्तन है. तब तक मैं क्या करूँ? पता नहीं. बस छटपटाता रहूँ?

ज़िन्दगी के इस उबड़खाबड़ में अपनी कोई मंजिल दिख नहीं रही. सब धुँधला है. कोहरे की तरह. ऐसा लिखना बिलकुल भी नहीं चाहता, पर क्या करूँ? जब चीज़ें संभाले नहीं सँभलती, तब-तब लिख कर उसे जाने देता हूँ. कहीं जादा देर अपने अन्दर रख लिया तो इसका ज़हर मेरे सारे अस्तित्व में फ़ैल जाएगा. मैं तब तक मर जाना चाहता हूँ, जब तक मेरी दुनिया मेरे मन की न हो जाये.मेरे मन की. मेरे मन की परछाई जैसे.

पता नहीं तुम्हारी दुनिया तुम्हारे मन मुताबिक है या नहीं? पर मेरे मन की तो बिलकुल भी नहीं है. इसी मन के अन्दर कई दिन हुए खूब रोना चाहता हूँ. पर गले तक रुआंसा होकर भी रो नहीं पाता. हलक में आँसू जमा होकर भी आँख तक नहीं आ पाते. मैं किसी को नहीं बताऊंगा पलपल मर रहा हूँ. हम सब पल पल मर रहे होते हैं, पर महसूस नहीं करते. जबसे महसूस करने लगते हैं, तबसे मरने लगते हैं. मैं मरने लगा हूँ. पर सच, मरने से डरता हूँ. किसी से बताता नहीं, मर जाने का मन करता है. लोग समझेंगे नहीं. इसीलिए कहने लगता हूँ, थोड़े दिन मर जाते हैं, फ़िर लौट आएँगे. लोग डरते हैं, इसलिए उनके सामने नहीं कहता. जो अभी भी डर रहे हैं, वह इस पन्ने को अनलिखा और अपने पढ़े को अनपढ़ा मानकर चैन से सो सकते हैं. चैन से सोना असल में मर जाना है.

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