बिजली और गाँव

नींद में था. अभी भी उबासी आ रही है. लेटने से पहले बस यही सोच रहा था कि हम ही लोग तो थे, जो यहाँ आते थे, तब ‘लाइट-लाइट’ चिल्लाते थे. आज जब यही लाइट यहाँ गाँव में रहने वाले सभी लोगों को हमारे मुताबिक नहीं ढाल रही, तब परेशानी हो रही है. परेशानी लाइट की प्रकृति में नहीं है, वह तो मूलभूत रूप से वैज्ञानिक उपकरणों को चलाये रखने वाली उर्जा है. परेशानी है, इसके पूँजीवादी चरित्र में. यह बिजली इन सबको बड़े महीन तरीके से उपभोक्ता में तब्दील कर रही है.

इसे सीधे-सीधे कहना बहुत कुछ न कहने जैसा है. हमें यहाँ पलभर से कुछ जादा ही ठहरना होगा और समझना होगा कि बिजली के इनकी ज़िन्दगी में आने पर इनके कौन-कौन से कामों में गुणात्मक परिवर्तन आया होगा? हमें उसकी गंभीरता से सूची बनानी होगी. पहले कौन से काम बिलकुल भी नहीं हो पा रहे थे या उनमें जो ‘अमानवीयता’ के गुण थे, वह बिजली के आने पर बिलकुल नेपथ्य में चले गए. दूसरी तरफ़ उन कामों, ज़रूरतों, अनावश्यक इच्छाओं में वृद्धि हुई, जिससे इनके जीवन से सहजता चली गयी.

यहाँ ख़ुद से महत्वपूर्ण सवाल यह पूछा जा सकता है कि ऐसी सूची का निर्माण हम गाँव के सन्दर्भ में ही क्यों कर रहे हैं? शहर में आवश्यकता, ज़रूरत, इच्छा अनिच्छा का प्रश्न क्यों हम लोग नहीं पूछ पा रहे? यह सवाल वहाँ क्यों गैरज़रूरी लगते हैं? शायद यह हमारी तंग नज़री होगी या ऐसा ही कोई और सवाल इसके बीच से निकल कर आएगा. शहर की जो छवि हमारे अन्दर है, वह वैसी ही है, जैसे शहर हमें वहाँ नज़र आते हैं? उनमें भी तो कितनी गुंजाईश बची रह गयी होगी? वहाँ हम इन संभावनाओं को क्यों टटोलने से घबराते हैं? या यह उनकी त्रासदी मानकर हम उन्हें ऐसे ही छोड़ देना चाहते हैं. या शहर वह प्रयोगशाला है, जहाँ सभी चीज़ों को देख परख कर देखा जाता है और तब इन अंचलों में प्रवासियों द्वारा लाया जाता है या बात दुतरफ़ा है और गाँव से भी प्रयोग होकर शहर बन रहे होंगे?

जो बात नींद में दिमाग में घूम रही थी वह यह कि टीवी का आविष्कार अगर वैज्ञानिक उपलब्धि माना जाये, तब इसमें ऐसा क्या गुण था कि इसकी व्याप्ति हमें समाज में हर तबके तक आसनी से दिख जाती है? इसे तकनीक का ‘लोकतान्त्रिकरण’ नहीं कह सकते पर अभी इससे अच्छा शब्द पड़ नहीं मिल रहा. लेकिन फ़िर ऐसी कौन-कौन सी वैज्ञानिक उब्लाब्धियाँ हैं, जो इतनी सरलता से समाज में व्याप्त हैं और उनकी उपस्थिति प्रकट हो जाती है. सड़क, रेल, बस सब एकतरह के आविष्कार दिख रहे हैं, जो अंततः इंसानियत को गुलाम बनाने की तरफ़ ले जाती है. उपनिवेश एक सही शब्द है. या गलत भी हो, तब भी यहाँ सही लग रहा है.

विज्ञान ने हमें किसी शहर, अतृप्त इच्छा या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के उत्पाद का शाषित बनाकर रख छोड़ा है और उन तकनीकों को ‘लोक’ में व्याप्त नहीं होने दिया, जो जीवन को और बेहतर बन सकती थीं. वह वहाँ जीने लायक संभावनाओं को बचाए रखतीं. उलटे उसने ऐसी जीवनरक्षक प्रणालियों, दवाओं, आरामदायक बेहतर खोजों को एक ख़ास तबके के लिए बचा कर रखा हुआ है. यह मामला सिर्फ़ जीवन को बेहतर करने के लिए तकनीक के इस्तेमाल का नहीं बल्कि उसके ऊपर कब्जे का भी है. कल्पनाएँ इसतरह एक सबल, सशक्त उपभोक्ता के सपनों का संसार निर्मित करते हैं. जीवन भी ख़रीदा जाने लगता है. उनका उद्देश्य उसे समाज में न फैलने देना है. यह सुविधाओं के टापू हैं.

हो सकता है, पहली नज़र में यह स्थापनायें बहुत सतही लगें पर आप अपने चारों तरफ़ नज़र घुमाकर देखिये. नज़र में कुछ होगा जो चुभ जाएगा. यह अपनी-अपनी रिक्तताओं, आवश्यकताओं, अवकाशों के अभावों के परिणाम स्वरूप हमें दिखने लगेंगी. अभाव है, उस ख़ास भाषा का जिसमें उन्होंने ज्ञान को संरक्षित करके रख दिया गया है. अगर हमारे बच्चे उन निजी विद्यालयों में नहीं गए और उन ख़ास तरह के विषयों को नहीं पढ़ पायें, तब तक इस संरचना को तोड़ पाना संभव नहीं लगता. हमारी ज़रूरतों का सवाल इतना सरल एवं एक रेखीय नहीं है. वह इस शिक्षा तक होते हुए हमें यहाँ लाकर रख छोड़ता है, जहाँ हम कुछ करने लायक नहीं रहते. हमारे ही सामने विकास के नए पैमाने गढ़े जाते हैं. हम यह भी नहीं कह पाते हम अभी विकसित नहीं हुए हैं. हम कभी इस विकास के भागीदार भी नहीं बन पाते. हमें इसमें अपनी हिस्सेदारी बढाने के लिए अपनी ज़रूरतों को उस सत्ता तक पहुँचाना है, जहाँ अगर सड़क है, तब उससे थोड़ी ज़िन्दगी तो गाँव भी चली आये.

हमें बस यह ध्यान रखना है, इसकी ध्वनियाँ कहीं आगे तक जाएँगी. हमें बस उन्हें लगातार सुनते रहना है.

{इसका संशोधित रूप आज जनसत्ता में आया है. सुविधाओं के टापू नाम से. स्तम्भ दुनिया मेरे आगे.}  

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