छोटी-सी बात
हफ्ता भर हो गया कुछ लिखा नहीं है। ऐसा नहीं है, मन नहीं हुआ। मन जब उलझ जाए, उसके धागे उलझने लगते हैं। उलझे हुए लिखना मकड़ी के जाले बुनने जैसा है। आज भी इस चलती हुई हवा में कुछ खास नहीं सोच पा रहा। जितना भी चलने लायक है, उसे रोक देने के खयाल से भर जाना ज़िद से भर जाना है। यह कोई भावुक क्षण नहीं जब मैं भी बहने लगूँ। नींद आ रही है। थक गया हूँ। फ़िर भी लिखने की कोशिश में हूँ। कहना चाहता हूँ, अपने हिस्से की बात। बहुत छोटी-सी बात।
मेरे लिए लिखना मेरे हिस्से आ रहे अधिशेष का सिर्फ़ उपयोग करना नहीं है, बल्कि उस प्रतिरोध को दर्ज़ कराते चलना है, जो कोई सुनना भी नहीं चाहता। मैं अगर किसी के साथ छह घंटे झील के किनारे बैठ सकता हूँ, तब यह केवल उस वक़्त का निवेश नहीं है। बल्कि उन सम्बन्धों से मेरे किन्हीं और लक्ष्यों तक पहुँच जाने के लिए खुल जाने वाले खिड़की दरवाजों की तरफ़ जाती संकरी गली है। जो इसे इस अर्थ में नहीं समझेंगे उन्हें बार-बार समझाऊँ। वह माने न माने, यह उसी प्रचलित अवधारणा का हिस्सा है, जिसे हम प्रयोजनवादी तर्क कहते हैं, जोकि पूंजीवादी विमर्श से निकलता है। निकलना, समझने का फेर है बस।
मेरे लिए लिखना मेरे हिस्से आ रहे अधिशेष का सिर्फ़ उपयोग करना नहीं है, बल्कि उस प्रतिरोध को दर्ज़ कराते चलना है, जो कोई सुनना भी नहीं चाहता। मैं अगर किसी के साथ छह घंटे झील के किनारे बैठ सकता हूँ, तब यह केवल उस वक़्त का निवेश नहीं है। बल्कि उन सम्बन्धों से मेरे किन्हीं और लक्ष्यों तक पहुँच जाने के लिए खुल जाने वाले खिड़की दरवाजों की तरफ़ जाती संकरी गली है। जो इसे इस अर्थ में नहीं समझेंगे उन्हें बार-बार समझाऊँ। वह माने न माने, यह उसी प्रचलित अवधारणा का हिस्सा है, जिसे हम प्रयोजनवादी तर्क कहते हैं, जोकि पूंजीवादी विमर्श से निकलता है। निकलना, समझने का फेर है बस।
ऐसा नहीं है मैंने समझाने की कोई प्रायोजित वैचारिक संस्था खोल रखी है। जैसे मैं कभी उनकी तरह तुम्हें नहीं समझाने वाला कि यह बिंदी, नथुनी, बिछिया सब इतिहास के किसी दौर में स्त्रियों की पराधीनता के चिन्हों के रूप में निर्मित हुए सांस्कृतिक कूटपद हैं। हम शायद इस पर कई बार बात कर भी चुके होंगे। जिस दिन तुम ख़ुद इसे न पहनने को लेकर निर्णय करोगी वह तुम्हारा निर्णय होगा। आज तुम्हारी इच्छा है, तुम इसे पहन रही हो। कल नहीं होगी, तुम इसे मत पहनना। भले अपने अर्थों में मैं ख़ुद को असफल पति लगता रहूँ, पर उस दिन भी मैंने अपनी तरफ़ से यही तय किया था। मैं तुम्हारी विचार प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला कौन होता हूँ? उसे दिशा देने वाली बात तो सोच भी नहीं सकता। दिशा देना अपनी तरफ़ से धकेल देना है। और तुम्हें धक्का देना चाहता नहीं।
यह दोनों बातें अपने अर्थों में भले अंतर्विरोधी लग रही हों। लेकिन जिन्हें समझा रहा था, वे तर्क कर रहे थे। और तुमसे कभी तर्क नहीं किया। प्यार किया है। जिस दिन तुम ख़ुद तर्क करोगी, तबसे थोड़ा और प्यार करने लगेंगे।
यह दोनों बातें अपने अर्थों में भले अंतर्विरोधी लग रही हों। लेकिन जिन्हें समझा रहा था, वे तर्क कर रहे थे। और तुमसे कभी तर्क नहीं किया। प्यार किया है। जिस दिन तुम ख़ुद तर्क करोगी, तबसे थोड़ा और प्यार करने लगेंगे।
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