बात बाक़ी..

कल सुबह की तरह कभी हड़बड़ी में नहीं लिखना चाहता। लगता है, जैसे कुछ छूट गया हो। मौसम जैसी परिघटना को एक पंक्ति में शहतूत देख, कह देने भर से इन दिनों की बारीकियों को कह पाया होऊंगा, ऐसा बिलकुल नहीं है। वह मेरे जैसे की पकड़ में आने वाली चीज़ नहीं है। सच, वह कोई चीज़ ही नहीं है। असल में मौसम हवा है। हवा आँख से दिखती नहीं है। उसे हमारी त्वचा महसूस करती है। वह बताती है, मौसम बदल गया है। आँखें तो बस उन हवाओं के साथ बदलने वाली प्रकृति को देख पाने की कोशिश करती हैं। फूल आ गए हैं, यह तो उनकी ख़ुशबू से भी पता चल जाता है। लेकिन जब हमारी सभी इंद्रियाँ इन परिवर्तनों को एक साथ महसूस करते हुए अपने अंदर जो रेखाएँ खींचती हैं, वही उस बीत रहे मौसम की सबसे सुंदर तस्वीर होती है। उसका घटना, घटना नहीं हमारे अनुभव संसार में कुछ ख़ास हिस्से जोड़ते चलना है। जैसे अभी शहतूत पक रहे हैं। बोगनवेलिया बिखर रहा है। सेमर की रुई बन रही है। आम के बौर धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। अमलतास के फूल खिलने वाले हैं।

इन सबको एक साथ महसूस करने के लिए एक-एक क्षण वहीं थम जाना होगा। पर तुम्हारी तरह नहीं राकेश। तुम तो अपने फ़ोन को लेकर इस कदर बेपरवाह बन जाते हो कि तुम्हारी दुनिया छिंदवाड़ा के बाहर कहीं है ही नहीं जैसे। हम जो दिल्ली में छूट गए हैं, तुम्हें फ़ोन से ही पकड़ सकते हैं। पर हर बार तुम चकमा दे जाते हो। जब-जब बात करने का मन होता, तब-तब तुम अपनी जगह से गायब मिलते। इतनी बेफ़िक्री कहाँ से लाते हो राकेश? कुछ हमारे हिस्से की भी छोड़ दो। क्या कर रहे हो आज कल, कोई खोज ख़बर हमारी भी ले लिया करो। ऐसा तो नहीं करना चाहिए तुम्हें। एक बार दिल्ली से क्या गए, तुम तो बस। क्या करूँ तुम्हारे आइडिया के नंबर का? लगता तो है नहीं कभी।

फ़िर कल जब याद करने बैठा, तब याद नहीं आ रहा कल से पहले कब आख़िरी बार ख़त लिखा होगा। तुम जब गाँव में थी तब से भी पहले किसी साल यहीं दिल्ली में आईपी एक्सटेंशन में सर को पोस्ट किया होगा। कल शहडोल, जिला उमरिया, मध्यप्रदेश एक किताब 'स्पीड पोस्ट' की है। उनहत्तर रुपये लगे। किताब का वजन चार सौ तीस ग्राम दिखा रहा था। निराला का कविता संग्रह। परिमल। हिन्दी बुक सेंटर तो 'आउट ऑफ प्रिंट' बता रह था। जब राजकमल प्रकाशन गया तब देखा, नया संसक्रण दो हज़ार पंद्रह का ही है। हार्ड बाउण्ड। उसी किताब में दो पन्नों का ख़त रख दिया। दरियागंज तो ख़ैर गोलचा सिनेमा के आस पास हेरिटेज लाइन के चक्कर में बड़ी-बड़ी क्रेनों के लपेटे हैं इधर। देखकर जी घबरा जाये किसी का भी। हम कभी उनके साथ रह भी पाएंगे, सौ साल पहले गाँधी सोचते भी नहीं होंगे। अपन एमए के दोस्त हैं। उसी को ख़त भेजा है। फ़ोन करके किताब की बात तो बताई, चिट्ठी वाली रहने दी। उनका अंतर्देशीय तो मिला नहीं, हमने ही डाक भेज दी है। मिलेगी तब देखेंगे, क्या कहते हैं जनाब।

और तुम राकेश, मौसम मत बनो कि इतनी दूर से नज़र भी न आओ। कभी-कभी फोन पर दिख जाया करो।

टिप्पणियाँ

  1. अच्छा है राकेश फ़ोन के आस-पास नहीं, कम से कम यह उम्मीद तो बाकी है कि लोग फ़ोन के सहारे ही जिन्दा नहीं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उम्मीद बात करने में बाकी हैं, फोन उसका बस जरिया है। इससे जादा कुछ नहीं। पर इतना तो हैं ही कि तकनीक जुड़े रहने का भ्रम तो देता ही है।

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

खिड़की का छज्जा

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

जब मैं चुप हूँ

लौटते हुए..

टूटने से पहले

पानी जैसे जानना