शहतूत आ गए हैं

कैसा मौसम हो गया है? उसका भी ‘सैकिण्ड सैटरडे’ हो जैसे। शायद छुट्टी पर चला गया लगता। इसलिए नज़र में आता हुआ भी गायब है। हम कुछ भी कह देने को अपनी मर्ज़ी मानते हैं पर लिखने के पीछे गुज़रते हुए उन ध्वनियों में कहीं भी उन एहसासों को छू भी नहीं पाते। ऐसा क्यों होता होगा, कह नहीं सकता। जैसे नहीं कह सकता ‘चीनी फेरी वाला’ आज होता तो कितने बरस का होता? महादेवी वर्मा फ़िर कभी उस चीन से आए फेरी वाले से कभी मिलती हैं, यह भी नहीं बतातीं। पर शहतूत आ गए हैं। सड़क पर चलते हुए थोड़ा नीचे देखकर हम इन्हें पैरों से दबने से बचा सकते हैं। हम नहीं तो कोई होगा, जो इन्हें भी खा जाएगा। कच्चे, अधपके, खट्टे मीठे। काले, गुलाबी, लाल, सफ़ेद। सबका स्वाद कितना अलग हुआ करता। छुटपन में ढेले मार मारकर शहतूत के पेड़ को छलनी कर दिया करते। आज याद भी नहीं आख़िरी बार शहतूत कब खाये। कभी उन्हें पड़ा देखता तो उठाने की गरज से भर नहीं जाता। बस इतना ध्यान रखता हूँ, पैर के नीचे न पड़ जाएँ। एक वक़्त रहा होगा, जब हम इनसे ख़ुद को मापते होंगे। आज इन्हें देखते हैं तो यहाँ लिखने बैठ जाते हैं। यह दौर बदलने की नहीं हमारे बदलने की कहानी की सबसे दुखद पंक्तियाँ हैं। हम नहीं बदलते तो कौन कहता, दौर बदल गया है?

बदलना पीछे लौट जाने की ज़िद नहीं है। उसे साथ रखते हुए समेटते चलना है। इन पेड़ों का याद बन जाना उसके स्वाद को कभी जीभ पर वापस न पाने की कड़वाहट घोल जाये तब भी कुछ न करना हमारे मर जाने जैसा है। हम मर रहे हैं। उम्र के दबाव में आकर अपने स्वभाव को छोड़ देना इसकी पहले कड़ी है। भूल जाने के पहले हमारे हाथों से लिखी जाने वाली पटकथा का पहला पन्ना है। कोई कुछ कहता नहीं। बस याद करकर रोने का बहाना बनाने लग जाते हैं। असल में हम बहानेबाज़ हैं। कुछ नहीं करना चाहते। बस जैसे इन गरम होते दिनों में शहतूत पक कर टपकने लगेंगे, तब उसकी ख़ुशबू को हवा में तैरते महसूस करेंगे और अपने हिस्से का काम करके चुप लगा जायेंगे।

महसूस करके कुछ और करने की हालत में कहाँ रहेंगे? जितना कर सकते थे, उतना तो अपने हिस्से का ऊपर बता ही चुका हूँ। यहाँ दोहरा रहा हूँ, बस। इतनी हड़बड़ी में लिखना कभी ठीक नहीं लगता। जैसे अभी नहीं लग रहा। लग रहा है, जैसे धागा टूट गया हो। आऊँगा लौटकर। मौसम पर। रेशम पर। शहतूत पर। मतलब सबपर।

{ शहतूत महादेवी वर्मा के लिए। आज उनका जन्मदिन है। }

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