ये आपाधापी..

सब कुछ कितना व्यवस्थित लगता दिखता है। दुनिया, जिसे हम धरती कहते हैं, वह लगातार घूम रही है। दिन के वक़्त पर दिन, रात के वक़्त पर रात। मौसम भले हमारी करतूतों के बाद थोड़े इधर-उधर खिसक गए हों, पर इसने घूमना नहीं छोड़ा। इसी में मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी एक व्यवस्था है। हम जैसे कपड़े पहनते हैं वह भी इसी का विस्तार है। कभी सोचा नहीं, अगर हम उन लोगों के लिए इतने जुगुप्सा से क्यों भर जाते हैं, जो इस ढर्रे में कहीं 'फ़िट' नहीं बैठते। व्यवस्थित हो जाना सबसे बड़ी व्यवस्था है। वह पंचकुइयां रोड़ की लाल बत्ती पर कितने ही दिन रोज लेटा हुआ मिलता। उनसे किसी को परेशान नहीं किया। लेटा है तो लेटा है। आती-जाती गाड़ियों के पहियों को अपनी मौत का सामान नहीं माना उसने। बड़ी से मर जाता और छोटी से राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुँचते देर नहीं लगती। पर उसका कूड़ेदान के पास वाली जगह का चयन सबसे रचनात्मक चिंतन का नतीजा दिखता है। वह बड़ी चालाकी से वहीं डटा रहा। बदबू उससे आ रही थी या कूड़े से जब तक हम इस निर्णय पर पहुँचते, हम दो-तीन कदम की दूरी पार कर चुके होते। बंद मौसम, बंद खिड़कियों के बाहर नज़र इतने 'स्लो मोशन' में कहाँ चलती है। 

वो तो हम हैं, जिन्हें पैदल चलते हुए ये घूमती हुई दुनिया, डूबता हुआ सूरज, ढलती हुई शाम सबकुछ इतनी पास से गुज़रते हुए दिखते हैं। सब हमारी ज़ेब में हो जैसे। गति असल में हमें कई चीजों से अनदेखा को करना सिखाती जाती है। हवाई जहाज में बैठे व्यक्ति को नीचे घटित हो रही घटनाओं के बारे में कुछ भी अंदाज़ा नहीं लग पाएगा। उन विमानों को अनदेखा करने के लिए ही बनाया जा रहा है। जैसे हमारे यहाँ लोग एक बहुत तेज़ रफ़्तार से भागती रेलगाड़ी की माँग कर रहे हैं, असल में वह उन पटरियों के अगल-बगल हगते-मूतते लोगों को देखते हुए घिन्न से भर जाते होंगे। वह इतने प्रकाशवर्ष की गति चाहते होंगे, कि बरसात के बाद का इन्द्रधनुष भी अपने सारे रंगों को मिलकर सिर्फ़ एक रंग में तब्दील हो जाये। जब राफ़ेल में बैठा लड़ाकू पाइलेट हमारी दुनिया पर परमाणु बम गिराकर बहुत ऊँचाई से भाग रहा होगा, तब उसे भी पता नहीं चलेगा, इतनी रफ़्तार में उसका घर ही निशाने पर था।

तब वह उदय प्रकाश की कहानी 'घर' पढ़कर रोने लगेगा। अगर मैं उसे ग्वातेमाला की जेल में मिल सका, तब उसे क्लाइड इथर्ली की बात सुनाते हुए सो जाऊँगा। वह भी तब सो जाएगा। नींद हमें सुस्त बनती है। नींद ने ही कभी किसी आदिम समय में घर की पहली नींव रखी होगी। घर ने ही एक जगह ठहरना सिखाया होगा। तभी कोई मेहमान बनकर किसी के घर पहली बार मिल आया होगा। इसीलिए कहा जाता है, यह दुनिया इन्हीं सुस्त लोगों ने बनाई है। हम भी थोड़े सुस्त हैं। इश्क़ से लेकर काम तक। हम कुछ भी 'मैक थ्री' की रफ़्तार से नहीं करते। तभी अपने चहरे पर दाढ़ी उगने देते हैं। खाकर हाथ नहीं धोते। पीपल के पत्तों में हवा ढूँढ़ते हैं। तब रुककर सोचना शुरू होता है।

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