थक कर मन मेरा

थक कर लोग क्या-क्या करते हैं, इसकी कोई फेहरिस्त नहीं बनाने जा रहा। बस ऐसे ही सोच रहा था। थकना कैसी क्रिया है? इसके लिए कोई प्रयास किया जाना चाहिए या यह स्वतः हो जाने वाली परिघटना की तरह घटित होने लायक कोई ऐतिहासिक अन्तरक्रिया से उत्पन्न घटक का प्रदर्शित रूप है? इतनी बातों को समझने के लिए किसी भी तरह की कोशिश करना बेवकूफी है। इन्हें समझने के तरीके भी उतने ही अपने होंगे, जितने कि आपकी परछाईं। रातें हमेशा बल्ब की रौशनी में हों यह मुमकिन नहीं है। वहाँ कैसी होती होंगी, जहाँ समुद्र की लहरों की आवाज़ों से आसमान फटा जाता होगा। और वहाँ, जहाँ ढबरी की झिलमिल-झिलमिल करती लौ में कोई लेटा, धुएँ में अपने कल की गंध लेता मसेहरी में धँसा चला जाता होगा। उसके सपनों में भी आवाज़ें नहीं होंगी। वहाँ रील काले-सफ़ेद रंगों से दृश्यों को रंग रही होंगी। उसे काले घोड़े के सफ़ेद फ़र वाले मुलायम बाल बहुत पसंद थे। ऐसा उसने कभी बताया था मुझे। नानपारा में एक पान की आकृति वाला पक्का तालाब भी है। देखना कभी। सपने में कहीं भी जाने की टिकट नहीं लगती।

बिलकुल ऐसी ही बातें कहीं किसी दिमाग में दर्ज़ नहीं होंगी। वह लड़की जो यह सब जानती है, वह अब मेरी बीवी है। उसने भी अब कहना  शुरू किया है। उसकी किताब भी बन रही है। वह भी अब उन बीती रातों को देखे जुगनुओं की कहानी कहने लगेगी। उसे भी गोबर के कंडों की महक इस शहर से कहीं बाहर धकेल देगी। वह भी यहाँ से वापस लौट जाना चाहेगी। मेरी तरह। पर हम दोनों एक-दूसरे की परछाईं बन चुके होंगे। हम कहीं इस लाल टीन वाली छत को छोड़ कर नहीं जाएँगे। बर्फ़ गिरने लगेगी। रूई की तरह नर्म फ़ाहों वाली बर्फ़। गुलाबी रंग की। लाल रंग की। नाज़ुक-सी। अनछुई-सी। हम थम जाएँगे। उसमें हरे रंग वाली लकीरें भी होंगी। जैसी गिलहरी के माथे पर होती हैं।

फ़िर एक दम हम उस तपते रेगिस्तान में कहीं बारिश की बूंदों को ढूँढ़ते सियार की बातों में आ गए होंगे। उसने कहीं घास के मैदानों में कोई पुआल वाले बिस्तरों की ख़ूबी बताकर हमसे हमारे सपने छीन लिए होंगे। मैं भी उसके पीछे भागते-भागते सियार बन जाऊँगा। तुम हिरण बनकर सीता को दिख जाओगी। अपने मन में कुछ रोते हुए उस कहानी को याद किया करता और बिलकुल इसी पल भूल जाने का अभिनय करता हुआ उस नायक पति के धनुष से निकला तीर बनकर तुम्हें जा लगा। तुम मेरा स्पर्श महसूस करते ही मेरी उँगली पकड़ ऐसे दौड़ी जैसे वह दुबली चींटी जो सबसे आगे थी, तुम उससे भी आगे बढ़ गयी। वह मृगनयनी नायक हमें कभी अपनी आँखों से हमें देख भी नहीं पाया।

तब से मेरे सपनों में कई सारे सपने इधर-उधर हो चुके हैं। मैंने उस लिखने वाले को बताया। कैसे वह हमें देख नहीं पाया। उसने कहा है, वह दोबारा इस कहानी को दुरुस्त करेगा। उसके सफ़ेद बालों से बहने वाली स्याही से जितने किस्से निकले सब पानी में डूब गए। उसने मुझे एक तार भेजा है। कहते हुए कि कुछ-कुछ लिख कर उसे देता रहूँ। तुम क्या कहती हो? मैंने तो यह पहला पन्ना उसके लिए ही लिखा है। देख लेना। बताना। कैसा है? ऐसा सोचकर मैंने इस थकान को थोड़ी देर अपनी चोर जेब में रखा ही था कि फ़िर मन किया थोड़ा उस धुएँ में आँखों को धो लेते हैं। धोने से रोना आएगा और दुनिया तब और बेहतर दिख सकेगी। तुम भी तो कितनी बार मुँह धोते हो निदा फ़ाज़ली।

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