बेतरतीब दिल

पता नहीं वह कौन-सी बात रही होगी जो सोने से पहले सोने नहीं दे रही थी। मैं बहुत-सी बातें कहना चाहता होऊंगा। पर नहीं कह पाया। पैर चल-चल कर थक गए थे। थक कर भी सोचने में जो छटपटाहट है, वह कुछ भी करके कहकर सो जाता तो इतनी सुबह उठकर लिखता नहीं। मौसम में गर्मी बढ़ गयी है। इसी हफ़्ते इस साल की पहली ततइया दिखी। ढूँढ़ रही थी कोई ऐसी जगह जहाँ ठंडीयां आने तक अपना छत्ता बना सके। बाहर ज़मीन पर बोगनवेलिया दोबारा बिखरे दिख रहे हैं। पता नहीं यह कैसा क्रम है, बसंत जैसे-जैसे बीत रहा है, पेड़ पत्ते छोड़ रहे हैं। जैसे यह अलविदा का मौसम बनकर हमारी यादों में बार-बार घूम जाता है। याद नहीं भी करते, फ़िर भी उन अनुभवों की सघनता उन सबको हमारी आँखों के सामने दोबारा लाने लगते हैं। हम इन यादों के मामले में कितने पुराने हैं। यह मौसम के साथ वापस लौट आती हैं। 

हम सबका मन इन दिनों की तरह हमारे अंदर बिखरने लगता है। उनमें कहीं खाली पड़े बेंच हैं। उन उखड़ी पड़ी पटरियों के बीच लड़ती मैना की आवाज़ें हैं। कोई वहीं प्लेटफ़ॉर्म पर आखिरी बार मिलकर लौट जाने के लिए बैठी है। शादी की बात बताए नहीं बताए, यही सोच रही है। वह उसे नहीं बता पाती। वह बस चुप है। रो रही है। वह समझता है, नहीं मिल पायेंगे इसलिए। सच में नहीं मिल पाएंगे, कभी भी। इसलिए ऐसी है। रो रही है। उसकी झुकी गर्दन पर तिल, उसका दिल है। बेसाख्ता दिल। पता नहीं ऐसी कितनी बातें दिल में सेमर की रुई-सी मुलायम हुई जाती हैं।

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