ज्ञान का मिथक

उस दिन वीकेआरवी राव हॉस्टल की कैंटीन से निकलते वक़्त हमारी चर्चा बिलकुल चरम पर थी। संदीप हम सबसे पूछ रहा था, कुर्सी हमारे ज्ञान का हिस्सा कैसे बनेगी? हम सब अपने अपने अर्थों में कुर्सी को पारिभाषित करते आए हैं। चार पैर। बैठने के उपयोग में आने वाली संरचना। यह लकड़ी, धातु से भी बन सकती है। लेकिन इन सारी सूचनाओं का उपयोग करते हुए जब हम अपने अनुभवों से होते हुए स्मृति में जाएँगे और वहाँ कहीं इसे चिन्हित कर पायेंगे, तब जाकर यह हमारे ‘ज्ञान’ का हिस्सा बन सकेगी।

जितनी सरलता से हम यह समझ गए, क्या उन लोगों को यह समझ नहीं आ रहा होगा, जब वह सब मिलकर विश्वविद्यालय में ज्ञान की देवी का मंदिर बनाने की योजना बना रहे होंगे? तब उनकी संकल्पना में कितना पुराना इतिहास मिथक बनकर सामने दौड़ने लगेगा? पता नहीं। उन प्रतीकों में प्राचीनता है, लेकिन वह संदिग्ध है।

यह कैसे हुआ कि समान रूप से विविध परिस्थितियों वाले समाजों संस्कृतियों में ‘ज्ञान’ का संरक्षण स्त्रियों के हिस्से तो आया पर कहीं भी उनके द्वारा रचित एक भी ग्रंथ का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा क्यों हुआ, यह सवाल भी वहाँ कहीं नहीं है। जब कभी होगा, तब कमलेश्वर की कहानी ‘जॉर्ज पंचम की नाक’ की तरह एक कवायद शुरू होगी। भारतीय पुरातत्व विभाग अपने पुस्तकालय और पुरातात्विक स्थलों की दोबारा खुदाई की योजना बनाने में जुट जाएगा और यहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘डी-स्कूल’ के हमारे साथी ‘एंथ्रोपॉलीजी’ जैसे जटिल विषयों में उलझकर रह जाएँगे। थक हारकर दोनों संस्थागत रूप से एक साझा प्रेस विज्ञप्ति में कुछ अदृश्य साक्ष्य जुटाकर कहेंगे चूँकि सभी समाज मूलतः पुरुष सत्तात्मक ढाँचे को पोषित कर रहे थे इसलिए मानव इतिहास की अज्ञात तिथियों में श्रवण परंपरा में उनके लुप्त होने के प्रमाण हैं और जो पुस्तकाकार पांडुलिपियाँ जिल्दों के रूप में थीं उन्हें या तो जला दिया गया या कहीं ऐसी जगह छिपा दिया गया, जहाँ अभी तक स्त्रियों की पहुँच नहीं हो पायी है। जिस दिन हो जाएगी, वह दिन दिन नहीं पुरुषों के लिए काली रात होगी।

हम पुरुष भी कितने चालक हैं, तब हम कहेंगे हमने तो अपने देश को भी एक देवी के रूप में रचा। उसे माता कहा। उसके लिए हम अपना सर्वस्व मिटा देने को हमेशा तत्पर हैं। लेकिन किसे नहीं पता हम ने प्रकृति के साथ कैसा व्यवहार किया है? यह असल में उसी तरह की एक शातिर चालाकी होगी, जिस तरह हम, अपनी माता के ज्ञान का परीक्षण आज तक घर की रसोई से बाहर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। ‘सरस्वती’ ज्ञान की देवी तो हैं किन्तु महावीर प्रसाद द्विवेदी को महिला शिक्षा के विरोध में दिये गए कुतर्कों का खंडन करना पड़ता है तो दूसरी तरफ़ डिप्टी नज़ीर ‘मिरात-उल-उरुस’ लिखकर एक सुघड़ गृहणी का ‘आधुनिक मिथक’ रचते हैं। समाज में दोनों स्वर आज भी समान सघनता के एकसाथ विचरण कर रहे हैं, लेकिन यह देखना निर्णायक होगा, कौन इतिहास की तारीख में बचकर इस सामाजिक संरचना को पुनर्निर्मित करेगा?

फ़िर अगर हम इन देवियों को लेकर कुछ अधिक ही लालायित हैं, तब हमें वापस कुर्सी की चर्चा पर आना होगा। हमें इस पूरी प्रक्रिया को हमें विखंडित करके देखना होगा। जब मैं अपने बचपन की कक्षाओं से लेकर तमाम जगहों पर चार पैरों पर खड़ी कुर्सियों को अपनी स्मृति में से बाहर निकालूँगा, वह मुझे ‘सामाजिक न्याय’ से लेकर ‘विशेषाधिकार’ तक की परिधि में ले जाएंगी। राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठने के लिए या तो पद चाहिए या किसी होटल में रखी चिकनी कुर्सी पर बैठ कर विदेशी व्यंजन आराम से खाने के लिए ज़ेब में बहुत सारे रुपये। हमारी स्मृतियों में कई ऐसी जगह वह भी होंगी, जिनके दिलों में सड़क किनारे चाय बेचते, नाई की पत्थर से बनाई गयी स्थापत्य कला इसी की हिस्सेदारी में आएगी। यह नवोन्मेष होगा। नया ज्ञान होगा।

बिलकुल ऐसे ही अगर मेरे भावुक हृदय में किसी देवी के लिए जगह है, तब मुझे उसे अपनी स्मृति में घटित हुए अनुभवों में उन्हें खोजना होगा। यह अनुभव मुझे समर्थ करेंगे मेरे अंदर वह जगह किनके लिए उपयुक्त है? हो सकता है, तब वह कहीं जाकर मेरी माँ की तस्वीर जैसी होगी, जिसने बिना औपचारिक शिक्षा के हमें पालकर इतना बड़ा किया। वह थोड़ी-थोड़ी सावित्री बाई फुले की तरह उभरेंगी। उनकी शक्ल बेबी हलदार की तरह होगी। उनमें शर्मिला इरोम की परछाईं होगी। वह नलिनी जमीला की तरह हो सकती हैं। निर्मला पुतुल भी वह हो सकती हैं और मेधा पाटकर भी। लेकिन सावधान रहना होगा कि इस क्रम में हम कहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उस परंपरा में न फँस जाएँ, जो सिर्फ़ मिथकों को खड़ा करके उनकी आड़ में छिप जाती है।

{‘दुनिया मेरे आगे’ में कल 22 फरवरी, सोमवार को प्रकाशित। जनसत्ता की साइट पर हिस्सा 'हिंसा' कैसे हो गया, पता नहीं। वहाँ पढ़ने के लिए क्लिक कीजिये, क्लिक पर। }

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