ये जो देस है

आज पूरा दिन बैठे बैठे निकल गया। कुछ ख़ास किया हो ऐसा नहीं कह सकता। पर दिमाग को लग रहा है तो बहुत कुछ उसके हिस्से का न दिखते हुए भी हुआ होगा। कल 'रेवेनांट' देखने के बाद 'तमाशा' देखी। कहानी हमारे मन में हो और हम उससे अलग दिखने की अपनी ज़िद पूरी करना चाहते हों तो सामने चलते दृश्य अंदर चलने लगते हैं। चलते-चलते रुक जाते हैं।

जिस वक़्त मैं यह फिल्म देख रहा था उसी वक़्त, बिलकुल उसी वक़्त दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में रवीश कुमार का 'प्राइम टाइम' चल रहा था। यह ख़बर सूचना की तरह फ़ेसबुक पर लगातार तैरती रही। हस्तक्षेप का तरीका और आपातकाल से तुलना भी साथ-साथ होती रही। बिलकुल वैसे ही जैसे हम लगातार देश का हिस्सा होते हुए उसे अपने अंदर गढ़ रहे होते हैं। वह चूँकि हमारे भीतर भी है इसलिए उसका कुछ हिस्सा इधर हम सबके अंदर दरक रहा होगा। सिर्फ़ काले-सफ़ेद में देखने लायक नज़र इसके पार देख पाने में अक्षम है। जो देशभक्त नहीं हैं, वह देशद्रोही हैं। दर्शन की कोई शाखा हमें यह ताकत नहीं दे पायी कि हम इन दोनों के बीच के रंगों को कोई नाम भी दे सकें। यह हमारे यहाँ की वाचिक परंपरा का स्खलन काल है। हम देश नहीं हैं तो कौन है? हम ख़ुद उसके हिस्से को लेकर उसके साथ मनमुताबिक कुछ नहीं कर सकते?

वह कौन हैं, जो अपने मुताबिक इसे गीली मिट्टी की तरह रुँधना चाहते हैं? उनकी पहचान सबसे ज़रूरी है। वह शर्तिया कुम्हार तो कतई नहीं हैं। हम भी अपनी दावेदारी के साथ बिलकुल तय्यार हैं। कोई हमसे पूछने नहीं आएगा, हमें ख़ुद इसमें अपना हिस्सा जोड़ना होगा। कोई कितना भी कहे, हम उसकी सुनेंगे नहीं। कभी-कभी नहीं सुन पाना, सुन लेने से बेहतर दुनिया बना ले जाने के अनदेखे नक्शों के पास लाता होगा। यह एक साथ दो स्तरों पर चल रहा होता है। एक जो दिख रहा है, मूर्त है, ठोस है, छूने लायक है उसी में सारी दिक्कत है। यह आकृति किसी काल विशेष में रूढ़ हो चुकी होगी और इसमें किसी भी तरह का रद्दोबदल बिना किसी उथल पुथल के संभव नहीं है। यह भूकंप से लेकर परमाणु बम के इस्तेमाल की रेंज तक जाता है। प्राकृतिक आपदा से लेकर युद्ध के नृशंस हत्यारे रूप तक।

विचार इसे वैचारिक रूप से बदलने की जब बात करता है, तब वह इसके भौगोलिक मानचित्र से छेड़छाड़ के इरादे से किया गया हस्तक्षेप नहीं होता। अगर होता है तब उसके पास हमारे क़ानून में कई ऐसी अस्पष्ट धाराएँ हैं, जिनमें उसे जेल से लेकर कहीं भी ठूँसा, पीटा, गरियाया जा सकता है। तब सवाल आता है, पहली बार ऐसे किसी विचार ने कब जन्म लिया होगा? उसके पीछे पूर्व पक्ष क्या रहे होंगे? कौन सी धारणायें उसको निर्मित कर रही होंगी? क्या वह बेहतर राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका नहीं निभा रही? आप देखिये, आप किस तरफ़ होकर सोचते हैं। एक वक़्त था, सन् सैंतालिस से पहले। हमारे सारे राष्ट्र भक्त विदेशी शासकों के लिए क्या थे। आज हम ऐसी स्थिति में हैं, जहाँ हम अपनी सीमाओं के भीतर शत्रु को रचकर विकास की परियोजनायें आगे बढ़ाना चाहते हैं। वह भी तो इसी देश के नागरिक हैं। उनके अधिकारों के लिए जो आगे आए हैं, उनके साथ हमारा राष्ट्र-राज्य प्रो. साईंबाबा और अरुंधती रॉय की तरह सलूक करता है। अब इसे आप क्या कहेंगे? जब तक आप सोचिए, मैं जा रहा हूँ घूमने।

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