सन् अड़तालीस से आया एक विचार

हम सब हमेशा कुछ न कुछ सोचते रहते हैं। किसान भी इस ठंड के न होने के बारे में सोच रहा होगा। दिल्ली की बदरी वाली इतवारी हम छत पर चढ़कर उसकी परेशानियों को कम नहीं कर सकते। सिर्फ़ बोल देना भी खेतों में खड़ी फसलों के लिए काफ़ी नहीं होगा। मेरे साथ दिक्कत है, मैं एक पर्चे पर आधुनिकता के सवालों से जूझना चाहता हूँ। मन में कई बातें चलते-चलते थक गयी हैं। सोच रहा हूँ, जब तक खाना नहीं खा लेता, तब तक यहाँ कुछ-कुछ लिखने से एक लय बन जाएगी।

वहाँ मेरी बात शुरुवात को लेकर अटक गयी है। औपनिवेशिक सत्ता के यहाँ से चले जाने के बाद भी आज की इस दिल्ली में हमारी ज़िंदगियों के कितने हिस्से उन्हीं बचे अवशेषों में सिमट कर रह गयी है। 'अवशेष' हमेशा ज़रूरी नहीं कि खंडित हों। उनपर धूल की मोटी दिखाई देने लायक परत हरबार पास जाने पर नाक में घुस जाये। उस काल की जितनी स्थापनाएं, चाहे वह स्थापत्य के रूप में हों, या उनके द्वारा बनाई गयी संस्थाओं के रूप में, या हमारे मनों में तैरती वैचारिकी हो, वह इतने लंबे समय के बाद भी आज बनी हुई है। उन्होने अपने ही समय जो भूमिका 'पुरातत्व विभाग' को बनाकर दी थी, उस भूमिका में अब हम सब हैं। दिक्कत यह भी है के 'आधुनिकता' को हम विचार के स्तर पर समझें या व्यवहार से समझने लायक कोई समझ बना सकते हैं। यह तो सवालों की फेहरिस्त के शुरू होने पर सबसे आसान से सवाल हैं जो जान लिए जाते हैं। चलिये इसे थोड़ा और उलझा देते हैं।

हम इसे कल तीस जनवरी, सन् उन्नीस सौ अड़तालीस में उस दिन घटित हुई घटना के परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करेंगे। दूसरा विश्व युद्ध हिरोशिमा नागासाकी की मार्मिक उदासी और जापान की हार के साथ खत्म हो चुका है। ब्रिटेन अपने साम्राज्य के बोझ से दबाव महसूस कर रहा था। हम तब तक एक आज़ाद देश का दर्जा अपने सीने पर ठीक से तमगे की तरह लगा भी नहीं पाये थे कि इस दिन महात्मा गाँधी की हत्या कर दी जाती है। जिस बंदूक से गोलियाँ निकलीं, वह युद्ध उद्योग का उत्पाद रही होगी। उसका निर्माण अपने आप में आधुनिक परिघटना से कम नहीं रहा होगा। युद्ध में इसे सफल उपयोगकर्ता के दृष्टिकोण से देखा जाता है। जहाँ एक पक्ष के लिए यह उसकी 'आत्मरक्षा' है। तथा दूसरे पक्ष की 'हत्या' इसलिए थोड़ी कमतर इसलिए हो जाती है क्योंकि उसने भी यही कोशिश अपने विपक्ष के लिए उतनी ही ताकत से की होगी। जो बच गया, लौट कर कहानी कहने लगा।

आप क्या समझते हैं बिरला भवन 'युद्ध का मैदान' नहीं था? पता नहीं, आपका क्या जवाब रहता है। मेरा जवाब नीचे है। मेरी नज़र में शायद वह कुछ-कुछ वैसा ही था। यह नए भारत को गढ़ने का सवाल था। सबके मनों में कितनी ही सारी छवियाँ उथल-पुथल मचा रही होंगी। सब अपने लिए एक कतरा देश चाह रहे होंगे। नोवाखली के बाद महात्मा गाँधी थोड़ा थक गए थे। बूढ़े तो वह पहले ही थे। लेकिन यहाँ हमें अपने सवाल पर वापस आना है। कि क्या इस 'हत्या' को हम आधुनिक कह सकते हैं? या यह अपने बदले हुए रूप में बर्बरता का विस्तार थी? लग रहा है, आप थोड़े असहज हो रहे हैं। थोड़ा रुक जाएँगे, तो ठीक रहेगा। थोड़ी देर छत पर घूम आइए। पानी पी लीजिये। पी लिया पानी? चलिये शुरू करें। यह असल में विचारों का द्वंद्व था। यह कोई छिपी बात नहीं रही कि इस द्वन्द्वात्मक संबंध में संघर्ष बना रहता है। जब विचार जीतना चाहते हैं, तब वह 'विचारधारा' बनकर सामने आते हैं।

विचारधारा, सोचने समझने के बने बनाए खाँचे हैं, जिन साँचों को किन्हीं पूर्ववर्ती उपयोगकर्ताओं ने परीक्षण करके देख लिया है और इस संबंध में अपनी स्थापनायें प्रस्तुत कर दी हैं। चूंकि यह 'विचारधारा' है, इसलिए दूसरे विचार को या तो वह ख़त्म करना चाहती है या उसे अपने में समा लेने की इच्छा से भर गयी है। इस तरह उसका चरित्र अब 'हिंसा' में परिवर्तित हो जाता है। गाँधी की हत्या इसी विचारधारा से हुई। बंदूक का उपयोग भी एक ख़ास तरह के विचार से उत्पन्न हुआ। जिसे अब हम नव-साम्राज्यवाद कह रहे हैं, तब अपने पूर्व संस्करण में था। विचारों का भी युद्ध होता है। मतलब हम यह कह सकते हैं, युद्ध जब तक हैं, तब तक हम इसी विचारधारा से संचालित होते रहेंगे। यह दुनिया एक दिन इन्हीं हथियारों से ख़त्म होगी। पता नहीं तब यह किस आधुनिक विचार की जीत होगी? 

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